रविवार, 24 फ़रवरी 2013

ऐसे किस्से मरते नहीं


एक कहानी आप सब के नाम...


दादा जी बताया करते थे कि वो इतना शातिर था कि कभी पुलिस के हत्थे नहीं चढ़ा और पुलिस इतनी नाकारा थी कि कभी उसको पकड़ने का कोई कारगर तरीका ईजाद नहीं कर पाई। उन दिनों गोरखपुर के करीब कप्तानगंज में उनकी पोस्टिंग थी और आजादी के फौरन बाद पुलिस महकमे की जो हालत थी उसमें नौकरी करने भी ज्यादा मुश्किल था खुद की हिफाजत करना। गांव से तीन कोस थाना था यानि गांव में कोई वारदात हो जाए तो तीन कोस तक खबर पहुचने में तीन पहर लग जाते थे और डकैत तो होते ही थे सयाने । वारदात भी मौका देख कर करते.. उन्हें हमेशा पता होता था कि थानेदार किस वक्त ताड़ी पीता है या फिर इस वक्त वो कौन से गांव में बैठा खाने पीने में मगन है। जगना डाकू की कहानी भी फिल्मी कम नौटंकी जैसी ज्यादा लगती थी। मैं और मेरा छोटा भाई अक्सर शाम को बैठकर जगना डाकू के किस्से सुना करते थे। मेरे दादाजी भी थोड़ा अलग किस्म के इंसान थे... पहले तो उस डकैत का किस्सा सुनाते वक्त उसे पांच पांच सौ बार गरियाते थे फिर फक्र से ये भी बताते थे कि वो उन्हें कितना मानता था और हर नवरात्र जब वो काली के मंदिर में पूजा करने आता था तो उन्हें सूचन भिजवा देता था कि मुंशीजी.. बाल बच्चेदार आदमी हो ..इसलिए हमार बात मान लेव,..पूजा में छुट्टी लेकर घर चले जइहो नाही तो कुछ ऊंच नीच होई गवा तो फिर हमका माफ करई कि खातिर भी ना रहिहो....निहाल जिंदादिल आदमी था....ऐसा कहना था दादाजी का...और हम ऐसे किस्से सुनते थे मानों राबिनहुड की स्टोरी हो.. दरअसल जगना डाकू डाकू था ही नहीं.. दादाजी का कहना था कि पहले वो अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ लड़नेवाले एक रियासतदार का मातहत था लेकिन जब उस रियासतदार को अंग्रेजी फौजों ने मार डाला तो वो राप्तीपार नेपाल के जंगलों में भाग गया। एक लंबे वक्त तक तो उसकी कोई खोज खबर नहीं हुई लेकिन एक दफे किसी पुराने परिचित ने जगन डाकू को देखा तो उसकी पहचान खोल दी। दादाजी कहते थे राप्ती पार जितने गांव थे वहां के लोग जगना के नाम से डरते नहीं थे उसकी पूजा करते थे। जगना की कहानी में फुलवरिया भी है। वो एक बेवा थी यानी विधवा.. जिसका काम था काली मंदिर में साफ सफाई करना वहां का बाबा एक अघोरी था और उसी ने फुलवरिया को आसरा दे रखा था हालांकि एकाध दफे कुछ गांववालों ने फुलवरिया को मंदिर से निकालने के लिए जुगत भिड़ानी शुरु की। लेकिन जब उनमें से एक-एक कर तीन गायब हो गए.. तो लोगों को पता चला कि फुलवरिया पर जुगना की छतरछाया है....ये सब कहानी के वो हिस्से थे जो कभी सुनाए नहीं जाते थे लेकिन जैसे पूजा में बीच-बीच में अक्षत छिरका जाता है वैसे ही छिरक जाते थे। जगना ना तो कभी किसी गांववाले को मारता था और ना ही कभी किसी का घऱ उजाड़ता था जब भी उसे पता चलता कि फलां सेठ कमा कमा कर इतना मोटा हो गया है कि उसकी लंबाई चौड़ाई का अनुपात निरंतर कम हो रहा है तो वो उसके घर बिन बुलाए मेहमान की तरह आ धमकता उसकी तिजोरी खुलवाता और फिर मतलब भर का माल लेकर चंपत हो जाता...उसने जितनी घरो में वारदातें की उनमें किसी को भी कंगाल नहीं किया। मुझे समझ नहीं आता कि दादाजी किसी डाकू का किस्सा सुना रहे हैं या फिर साधू का.....लेकिन था बहुतै कमीना..एक दफे कप्तान साहेब के आने पर किसी ने उनसे जगना की शिकायत कर दी। कह दिया साहेब बहुत बड़ा डकैत है जबतक मारा ना जाएगा। इलाके में अमन चैन नहीं आवेगा। जगना को किसी तरह खबर लग गई। ससुरे का कनेक्शन इतना तगड़ा था कि ये भी पता कर लिया कि किस साले ने कप्तान साहेब से लगाई है। फिर का था अगले सोमवार उसके घऱ जा धमका और फिर उसे घने जंगल में ले जाकर ऐसी जगह छोड़ आया कि वो वहीं भटककर मर गया। ..दादाजी जगना का किस्सा सुनाते वक्त बहुत सतर्क रहते थे किसी तरह से भी ऐसी कोई बात उनके मुंह से ना निकले जिससे बच्चे डर जाए...बच्चों को कहानी सुनाना सचमुच टेढ़ी खीर होता है... सच बता नहीं सकते औऱ झूठ के सहारे कोई किस्सा कभी सच जैसा बताया नहीं जा सकता...कहानी सुनते वक्त हम भी गुणा-भाग करते रहते..अच्छा तो ये था...अच्छा तो वो था... लेकिन हम भी कहीं ना कहीं समझते थे कि जो भी हो जगना डाकू कमीना तो बहुत रहा होगा....क्योंकि कहानी में जब भी कोई टर्निंग प्वाइंट आवे और हमें लगे कि कुछ खास अब होने वाला है दादा जी कहानी बीच में रोक देते.. ऐ तुम लोगों को पढ़ना-लिखना नहीं है क्या इसी किस्सा कहानी से इम्तिहान पास करोगे। और हम उनकी बात अनसुनी कर अड़ जाते कि आगे का बताओ फिर जाएंगे। मजबूरन उनको फिर से शुरू करना पड़ता। ये किस्सा बहुत लंबा है पूरी रात नहीं खत्म होगा आगे का कल सुनना । लेकिन हम भी कहां मानने वाले थे....अभी वाली बात को खत्म कर दो फिर कल आगे का सुन लेंगे। ..दादाजी एक लोटा पानी मंगवाते खंखारकर पानी पीते औऱ फिर शुरु हो जाते....जगना ने ब्याह रचा डाला फुलवरिया से ...सब नाचे... ठाकुर भी नाचे औऱ धोबी भी.....अघोरी ने भी ताड़ी लगाई और पूरी रात बिरहा गाया। और आप पुलिस वालों को क्या खबर नहीं होती थी इन सब चीजों की... होती थी हमको होती थी हमारे साहेब को भी होती थी और उनके साहबे को भी होती थी लेकिन हम ठहरे हुकुम बजाने वाले और वो ठहरे हुकुम की तालीम करवाने वाले....उनके ऊपर और भी थे जो हुकुम देते थे वो कौन से हम कभी मिले नहीं उनसे ना ही वो हमारे काम का कभी मुआयना ही करने आए...जैसे ही वो ये सब बताना शुरु करते हमें यही लगता कि वो अब हमे किसी तरह से टरकाना चाहते हैं और इसी खातिर हमें बोर करने की जुगत भिड़ा रहे हैं....बाबा जगना ने शादी कर ली फिर क्या हुआ....आगे भी तो बताइए वो पकड़ा गया.. मारा गया..या फिर भाग गया।......उसका हुआ क्या......

जगना कोई ऐसा वैसा डाकू नहीं था कि उसे इतनी आसानी से पकड़ा जा सके...वो असल मायने में डकैत था....कहते हैं फुलवरिया से ब्याह रचाने के बाद उसने डकैती से तौबा कर ली अपने परिवार के साथ वो राप्तीपार जंगलों मे जाकर बस गया ....सुनते हैं उसके ग्यारह बेटे हुए... उन लड़कों को उसने दूर किसी शहर भेज दिया.....जहां वो पढ़लिख गए और बाद में काम धंधे में लग गए.. औऱ जगना डाकू... वो साधू हो गया औऱ सुनते हैं कि उसने अघोरी का रूप धर लिया औऱ जंगल में ही एक मंदिर बनवाया और वहीं फुलवरिया के साथ रहने लगा.....लेकिन बाबा... किसी डकैत के किस्से की इतनी आसान मौत कैसे हो सकती है....ये सवाल तब दिमाग में कौंधता भर था उसे सवाल का जामा पहनाने की काबिलियत हमारे पास नहीं थी....अब हमारे पास सवाल है मगर दादाजी नहीं है.. जगना तो साधू होकर मुक्त हो गया लेकिन किस्से का अंत नहीं हुआ..दादाजी समझदार थे उन्होंने हमें किस्सा नहीं सुनाया...बल्कि एक याद बनकर हमारे जेहन में पैबस्त हो गए....जिंदगी की भागमभाग में हम कितना भी मशरूफ क्यों ना रहे...जगना का किस्सा हमारे जेहन में पैबस्त रहेगा.. और पैबस्त रहेंगे उससे जुड़े सवाल और इसी बहाने हमारे दादाजी भी.. कभी-कभी लगता है कितने समझदार थे हमारे पूर्वज...
दीपक नरेश

शनिवार, 20 अगस्त 2011

बप्पी दा..कहां हो?

पहली बार ऐसा हो रहा है.. किसी करिश्मे से ये कम नहीं.. समझ नहीं आ रहा कि हैरान होऊं या परेशान.. पूरा हिंदुस्तान अन्ना की हुंकार सुनकर आंदोलन में शामिल हो चुका है. .लेकिन अबतक अपने दादा कहीं नजर नहीं आए हैं.. ना रामलीला मैदान में और ना ही टीवी पर.. अरे भई.. मैं बात कर रहा हूं अपने बप्पी दा की.. हिंदुस्तान की तवारीख में ऐसा कौन सा जलसा.. आंदोलन या नुमाइश हुई होगी जिसमें दादा मय सेल्फ मेड गाना शिरकत ना किए हों.. कुछ नहीं होता था तो बप्पी दा.. अपनी स्वर्णाभूषित स्थूलकाय काया दिखाकर ही उत्साहित कर जाते थे..कि बच्चा जो चमका नहीं तो वो सोना ही क्या.. लेकिन आज उनके चाहने वाले वाकई उदास हैं.. दादा कहां हैं..दादा अबतक नजर क्यों नहीं आए.. पूरा हिंदुस्तान लोकपाल..लोकपाल की ललकार के साथ सड़क पर उतर आया है लेकिन बप्पी दा का कोई पता नहीं.. ताज्जुब ये हो रहा है कि आंदोलन जैसे..जैसे आगे बढ़ता जा रहा है.. बप्पी दा की कमी उतनी ही ज्यादा अखरने लगी है.. आखिर क्यों नहीं वो आगे आकर कोई ऐसा गाना गढ़ रहे.. जिसे सुनकर लोगों को लगता कि बस इसी की तो कमी थी.. आंदोलन में ....ये मिल गया.. समझो आंदोलन चमक गया ... इसलिए एक सजग संगीतप्रिय श्रोता होने के नाते मेरी बप्पी दा से गुजारिश है कि जहां कहीं हो...एक बार झलक दिखला दें और अपने चाहने वालों को एक बार फिर अन्ना के आंदोलन पर एक तड़कता..फड़कता गीत सुना दें..

आपका हमसफर

दीपक नरेश




गुरुवार, 18 अगस्त 2011

अब कामयाबी दूर नहीं..

अन्ना ने देश में एक ऐसी लहर पैदा कर दी है जिसने हर आदमी में ये भरोसा जग गया है कि हां भ्रष्टाचार को मिटाया जा सकता है.. हर हिंदुस्तानी वो चाहे दुनिया के किसी भी कोने में हो.. अन्ना की मुहिम में जुड़ने को बेचैन है। अफसोस.. सरकार इस बेचैनी को क्यों नहीं वक्त रहते महसूस कर पा रही है.. सच्चाई ये है कि सरकार को अपनी हार साफ दिख रही है.. अन्ना से भी और सियासी मोर्चे पर भी.. हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी पता नहीं क्यों जनता की नब्ज महसूस नहीं कर पा रहे.. क्या ये कांग्रेस के पतन के संकेत हैं.. आज से सात दशक पहले जब आजादी की ल़ड़ाई अपने अंजाम तक पहुंच रही थी.. महात्मा गांधी ने कहा था कि आजादी के बाद कांग्रेस को खत्म कर दिया जाना चाहिए.. कहीं अन्ना के अनशन से पैदा हुई अगस्त क्रांति कांग्रेस के पतन की इबारत तो नहीं लिखने जा रही..
मैं ये नहीं समझ पा रहा है कि इस आंदोलन में ऐसा क्या है जो कांग्रेस और उसके आलाकमान को नजर नहीं आ रहा..शायद आजादी के बाद ये पहला मौका है जब किसी मुद्दे को लेकर हिंदुस्तान की जनता इस कदर एकजुट नजर आ रही है और वो भी बेहद अनुशासित तरीके से.. लोग अन्ना के सत्याग्रह को अच्छी तरह समझ रहे हैं उनमें आक्रोश नहीं है.. उनमें सत्ता को उखाड़ फेंकने की बेचैनी नहीं हैं.. उनमें सियासतदानों को सबक सिखाने की भी कोई चाहत नहीं है.. वो आज को बदलने को उतने बेचैन नहीं है जितना इस बात को लेकर कि आने वाला कल बेहतर हो.. और इसके लिए वो किसी किस्म की हिंसा का भी सहारा नहीं लेना चाहते.. खुद अन्ना और उनकी टीम इस बात को साफ कर चुकी है कि वो आंदोलन को बेहद शांतिपूर्ण तरीके से चलाने के हिमायती हैं। लेकिन अफसोस की बात ये है कि सरकार कभी अफवाहों का सहारा लेकर तो कभी उलटे सीधे बयान देकर जनता को भरमाने की कोशिश कर रही है.. क्या ये ठीक है? लोग जानना चाहते हैं कि आखिर सरकार को ऐसी क्या परेशानी है जिसके चलते वो इस आंदोलन की हवा निकालने को तुली है.. क्या सरकार में बैठे नुमाइंदे डर गए हैं कि कहीं उनके चेहरे से नकाब ना उतर जाए.. कहीं लूट-खसोट की उनकी आजादी को ग्रहण ना लग जाए.. कहीं उनकी निरंकुश और भ्रष्ट सत्ता पर ईमानदारी का पहरा ना बैठा दिया जाए।

असल में यही होने जा रहा है आज नहीं तो कल.. क्या सरकार के नुमाइंदों को वो आवाज सुनाई नहीं दे रही जो कभी किसी गीतकार की .. कभी किसान की.. कभी वकील की.. कभी छात्र की.. कभी कामगार की.. कभी इंजीनियर की... कभी फिल्मकार की.. कभी कलाकार के जज्बातों का इजहार कर रही है.. सब बदलाव चाहते हैं और इस बदलाव को होने से रोका भी नहीं जा सकता है तो फिर आखिर मनमोहन सरकार किस चीज की इंतजारी कर रही है.. क्या वो चाहती है कि उसके चेहरे पर विलेन का लेबल चिपका कर ही उसे गद्दी से उतारा जाए.. जनता एकजुट है भ्रष्टाचार के खिलाफ.. बेईमान सरकार लामबंद हैं अन्ना के खिलाफ.. लेकिन जनता और सरकार के बीच ये जो अन्ना नाम का जीव अपनी बूढ़ी काया के साथ इतिहास को करवट लेने के लिए मजबूर कर रहा है उसकी ताकत का अंदाजा शायद सरकार नहीं लगा पा रही है.. आने वाले चंद दिन हिंदुस्तान की अवाम के लिए बेहद खास रहने वाले हैं.. चंद दिनों बाद उन्हें आजादी के बाद उगने वाला सूरज फिर से एक बार दिखाई देने वाला है.. उससे निकलने वाली उम्मीदों की किरनें हिंदुस्तान में ऐसा उजाला फैलाएंगीं कि सारी दुनिया उसकी चमक देखेगी.. वो देखेगी एक ऐसा आंदोलन के अंजाम को जिसको एक बेहद बूढ़े इंसान ने नौजवान पीढ़ी की ताकत से हकीकत में बदल दिया... वक्त आ गया है आइए हम एकजुट हों और जहां कहीं भी हैं वहीं से अन्ना की आवाज में आवाज मिलाकर कहे.. कि भ्रष्टाचार भारत छोड़ो...
जय हिंद, जय भारत
आपका हमसफर
दीपक नरेश