मंगलवार, 30 सितंबर 2008

ये कैसा लोकतंत्र ?


हर दिन एक हादसा होता है हर दिन एक उम्मीद दम तोड़ देती है.. कुछ इस तरह राजनेताओं की तसल्ली हमारे हौसले को सुकून देती है...आप इसे भले ही मेरी तुकबंदी का नाम दे.. लेकिन जिस दिन से देश के अनुभवी और बेहद काबिल गृह मंत्री शिवराज पाटील का दिल्ली धमाकों के बाद का बयान कानों में गया यकीन मानिए..तबसे कम्बख्त कान में ही घुसा हुआ है निकलने का नाम ही नहीं ले रहा..बड़ी कोशिश की कि धमाके के बाद फिर धमाके..फिर भगदड़ और फिर ..बेकसूरों की मौत को उनकी बदकिस्मती मान कर दिल को तसल्ली दे दी जाए कि इतनी बड़ी आबादी वाले लोकतंत्र में ये सब तो होता ही रहता है लेकिन आज जब जवानों की मौत की खबर अखबार में पढ़ी तो तय किया कि कोई सुने या ना सुने कहूंगा जरूर..
तो आज केवल दो खबरों का जिक्र करना चाहूंगा...पहली छत्तीसगढ़ में मंत्री महोदय की हेलिकॉप्टर सवारी सीआरपीएफ के दो जवानों की जिंदगी पर भारी पड़ गई और वो दोनों जवान बेमौत शहीद हो गए..शहीद लफ्ज का इस्तेमाल इस लिए कर रहा हूं क्योंकि ये जवान राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील के बस्तर दौरे में हुए नक्सली ब्लास्ट में जख्मी हुए थे और डॉक्टरों ने इन्हें तुरंत रायपुर ले जाने की सलाह दी थी.. लेकिन जिस हेलिकॉप्टर से इन्हें ले जाना था उस पर जाने के लिए राज्य के वन राजस्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल हड़बड़ी में थे। लिहाजा ये जवान इलाज के लिए रायपुर पहुंच ही नहीं पाए और जगदलपुर में ही इनकी मौत हो गई

खबर नंबर दो--- जोधपुर के मेहरानगढ़ किले के एक हिस्से में बने मां चामुंडा के मंदिर में भगदड़ मच गई औऱ पहले नवरात्र के मौके पर माता के दर्शन के लिए आए भक्तों में से 147 की मौत हो गई। मंदिर में भगदड़ की ये कोई पहली घटना नहीं है। लेकिन इस हादसे की एक वजह ये भी बताई जा रही है कि मंदिर में श्रद्धालुओं को नियंत्रित करने के लिए पर्याप्त सुरक्षाकर्मी वहां मौजूद नहीं थे। क्योंकि पुलिस महकमे के ज्यादातर आला अधिकारी उस वक्त मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की तीमारदारी में जुटे थे जो कहीं और पूजापाठ कर रही थीं।
वैसे तो लोकतंत्र की अच्छाइयां गिनाने के लिए विद्वानों के पास इतनी दलीलें होंगी कि मेरे सवाल औंधे मुंह आ गिरेंगे लेकिन फिर भी लोकतंत्र से जुड़े इन दो सवाल का जवाब मैं जरूर चाहूंगा..
सवाल नंबर एक-- अंग्रेजों के जमाने में गुलामी कानून था हमने उसके खिलाफ एक लंबी लड़ाई लड़ी औऱ आजादी के नाम पर लोकतंत्र का ईनाम पाया क्या ये वही लोकतंत्र है?
सवाल नंबर दो--लोकतंत्र के चार पाये में से एक है राजनीतिक सिस्टम...लेकिन इस सिस्टम ने लोकतंत्र को हाइजैक करके इसे आम आदमी के लिए परलोकतंत्र बना दिया है..जहां एक तरफ लकवे का शिकार प्रशासन है और दूसरी ओर वोट देकर इस बनाए रखने को बेबस जनता...और इन सबके बीच तेजी से सिर उठा रही है मौकापरस्तों की फौज.. वो मौकापरस्त जो किसी विचारधारा, किसी महत्वाकांक्षा या फिर अपनी दिक्कतों की दुहाई देकर लोगों को मौत के मुंह में धकेल रहे है। लोकतंत्र के नाम पर तेजी से सड़ रहे इस सिस्टम में इन मौकापरस्तों से लड़ने की कुछ गुंजाइश बची है क्या ?
ये वो सवाल हैं जो हर दिन जाती हुई जिंदगियों औऱ हर रोज तबाह होते किसी परिवार से सीधे जुड़े हैं.. संविधान में मौलिक अधिकारों के नाम पर जितने अनुच्छेद लिखे गए.. उससे हमेशा यही आस रही कि हर किसी को जिंदा रखना भले ही मुमकिन ना रहे ..लेकिन बेमौत मरने से रोकने की तो कोशिश जरूर की जाएगी.. जगदलपुर में जिन दो जवानों की बेहद लाचारगी में मौत हुई उनका कसूर क्या था... वो नक्सलियों वाले इलाके में राष्ट्रपति की सुरक्षा में लगाए गए थे या फिर उनका ओहदा इस लायक नहीं था कि उनकी जिंदगी बचाने को प्राथमिकता दी जाए.. मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि किसी राजनीतिक दल की जिला इकाई का कोई चूरनछाप नेता भी राष्ट्रपति के दौरे के बीच इस तरह के ब्लास्ट में घायल होता तो उसे बचाने के लिए राज्य का पूरा प्रशासनिक अमला ऐड़ी चोटी का जोर लगा देता..लेकिन ये जवान थे सीआरपीएफ के जवान..वो जवान जिनकी जिंदगी की अहमियत कुर्बानी के बाद ही पहचानी जाती है..लेकिन ये कैसी कुर्बानी जिसमें बेमौत मरने की बेचारगी दिखाई देती है..क्या इस तरह की खबरे सुनकर सेना और अर्धसैनिक बलों में काम करने वाले लाखों जवानों का मनोबल नहीं गिरता होगा.. जो मां-बाप इन खबरों को पढ़ते होंगे वो तो अपनी औलादों को अर्धसैनिक बलों में भेजने का ख्याल भी जेहन में लाने से बचेंगे...लेकिन अफसोस की बात ये है कि इस तरह के हादसे हमारे देश के नेताओं पर जरा भी असर नहीं डालते..
दूसरे वाकये में तो जिन लोगों की मौत हुई वो बेचारे तो भगवान के दर पर गए ही थे अपने और अपने परिवार की सलामती की दुआ करने.. लेकिन उन बेचारों को क्या पता था कि इस देश में उनकी जिंदगी भगवान के नहीं राजनेताओं के रहम के भरोसे है.. उन राजनेताओं के भरोसे जिन्हें भले ही वो अपना रहनुमा चुनते हैं लेकिन इस देश में वो भगवान से भी ज्यादा ताकतवर हैं.. और ऐसे हादसों के बाद उनकी ताकत की अहमियत कई गुना औऱ बढ़ जाती है...उनका कद इतना बड़ा है कि इस तरह के तमाम हादसों के बावजूद हमारा सिस्टम और हमारी एक अरब की आबादी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाती औऱ वो बयानों की चादर ओढ़ कर आराम से सोते रहते हैं..
याद आ रहा है बिहार में बाढ़ की राष्ट्रीय आपदा.. एक ईमानदार अफसर ( मुझे इस वक्त उसका नाम नहीं ध्यान आ रहा) ने बिहार के अफसरों को लगातार एक हफ्ते तक इस बात की चेतावनी भेजी कि कोसहा बांध किसी भी वक्त टूट सकता है लेकिन रिसीविंग एंड पर मौजूद अफसर तो छुट्टी पर चल रहे थे औऱ उनके पीछे उनका काम संभाल रहे अफसर ने ऐसे संदेशों पर ध्यान तक देने की जरूर नहीं समझी..नतीजा वो लोग जो घरों में अपने बीवी बच्चों के साथ सो रहे थे या फिर इस सिस्टम के भरोसे थे,..बेमौत भगवान को प्यारे हो गए..लाखों जिंदगियां तबाह हो गई..किसी का बेटा गया तो किसी का घऱ बार..औऱ खबरों से फलता फूलता रहा हर रोज का अखबार...और इन सबसे बीच लालू यादव जैसे मीडिया के चहेते राजनेता अपनी राजनीति चमकाने में जुटे रहे।।। लेकिन सबसे चौंकाने वाली बात ये रही कि इन सबके बीच कभी ये खबर नहीं सुनाई पड़ी कि आखिर इस तरह की चेतावनी को नजरअंदाज करने वाले अफसरों का क्या हुआ? क्या उनके खिलाफ होमीसाइड का मामला दर्ज किया गया और इस तरह की गंभीर लापरवाही बरतने के जुर्म में उन्हें बर्खास्त करने की कार्रवाई शुरु भी हुई या नहीं?
जब मैं पढ़ाई कर रहा था तो कुछ हिंदी के कवियों से भी साबका पड़ा.. उनकी कविताई में भले ही कोई दम नहीं नजर आया लेकिन उनकी एक अदा पर मैं हमेशा फिदा रहा.. वो ये कि कितनी भी घटिया कविताई करो लेकिन मार्केटिंग शानदार करो.. और वो भी कुछ इस तरीके से. कि अगर दो कवि दोस्त हैं तो उनके बीच एक मेमोरंडम ऑफ अंडरस्टैंडिग हमेशा दिखाई देती थी.. कि.. तुम मुझे पंत कहो और मैं तुम्हें निराला कहूंगा.. और इस तरह एक दूसरे के नाकारापन पर पर्दा भी पड़ा रहेगा औऱ महफिल में जमे भी रहेंगे
कुछ यही दिखाई देता है राजनीतिक और प्रशासनिक सिस्टम की ट्यूनिंग में....जहां राजनेता प्रशासनिक सिस्टम की हर खामी को नजरअंदाज करते हैं और बदले में प्रशासनिक सिस्टम उन नेताओं को अपना उल्लू सीधा करने में भरपूर मदद करते हैं..लेकिन इन सबके बीच सिस्टम को शिकंजे में ले चुके भ्रष्टाचार का सहारा लेकर देश को तोड़ने वाली ताकतें जो तबाही मचा रही हैं उसका शिकार हो रही है बेबस लाचार जनता...
दरअसल गौर से देखा जाए तो ये एक दुष्चक्र की तरह नजर आता है जिससे निकलने का कोई रास्ता नहीं..बस उम्मीद की एक किरन है जो वहां से आती दिखाई दे रही है जहां चंद अच्छे लोग ईमानदारी से इस कोशिश में लगे हैं कि आवाज उठाओ.शायद कभी ये आवाज अपना असर दिखाए और बेमौत मरती जिंदगियों को बचाने की ठोस कोशिश हो.. तब तक तो ये देश और इसकी जनता भगवान के ही भरोसे है.....
आपका हमसफर
दीपक नरेश

रविवार, 21 सितंबर 2008

इस्लामाबाद में आत्मघाती हमला


पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के मैरियट होटल के बाहर हुए आत्मघाती हमले में 54 लोगों की मौत हुई। मरने वालों में चेक गणराज्य के राजदूत इवो जदरैक भी शामिल हैं। इसके अलावा कई विदेशी नागरिक भी इस हमले में मारे गए। इस हमले में घायलों की तादात भी सैकड़ों में है। दुनियाभर के देशों ने इस हमले की कड़ी निंदा की है और आतंकवाद के खात्मे के लिए एकजुट होकर लड़ने की अपील की है। पाकिस्तान सरकार का कहना है कि उसे हमले की पूर्व जानकारी थी और इस बात की आशंका के मद्देनजर सुरक्षा के सभी इंतजाम किए गए थे। लेकिन ब्लास्ट के बाद के हालात को देखने के बाद तो ये कतई नहीं कहा जा सकता कि सुरक्षा के माकूल इंतजाम का पाक सरकार का दावा सही है। ऐसे में सुरक्षा के लिहाज से बेहद संवेदनशील इस इलाके में विस्फोट की घटना कई बड़े सवाल खड़ी करती है..मसलन क्या ये पाकिस्तानी जमीन पर अमेरिकी कार्रवाई की प्रतिक्रिया है या फिर कुछ और.. लेकिन एक दिलचस्प जानकारी जो मैं आपसे बांटना चाहूंगा.. पाकिस्तान के एक मशहूर टीवी की एंकर ने खबर पढ़ते वक्त दिल्ली धमाकों का जिक्र कुछ यूं किया.. पाकिस्तान में अबतक का ये सबसे बड़ा आत्मघाती हमला है और जैसा कि हम जानते हैं कि हमारे पड़ोसी मुल्क हिंदोस्तान की राजधानी दिल्ली में अभी हाल ही में बम धमाके हुए हैं ऐसे में इस आतंकवादी हमले के बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता कि इसे किसने अंजाम दिया.. इस बीच हमारे एक पत्रकार दोस्त ने खबर दी कि उसने पाकिस्तान हाई कमीशन में एक परिचित को फोन कर जानकारी चाही कि आखिर ये ब्लास्ट हुआ कैसे और इसके पीछे कौन है लेकिन हमारे पत्रकार बंधु का फोन जैसे ही उन महाशय ने उठाया..बिना हेलो हाय किए सीधे इन्ही से पूछ लिया कि ....भाई आप लोगों ने ये क्या करा दिया....
दूसरा पहलू.-- अब तक की जानकारी के मुताबिक इस हमले के पीछे तहरीक-ए-तालिबान के मुखिया बैतुल्लाह महसूद का हाथ बताया जा रहा है। वजीरिस्तान के आसपास के कबाइली इलाकों में अमेरिकी हमले से खासा बिफरे इस कट्टरपंथी संगठन के निशाने पर पाकिस्तानी हुक्मरान पहले से ही रहे हैं। ऐसी खबरें है कि पिछले कई महीने से इन कबाइली इलाकों में कार्रवाई को अंजाम दे रहे पाकिस्तानी सैनिकों से ये बेहद बेरहमी से पेश आते हैं। इनके हाथों अब तक कई पाकिस्तानी सैनिक हलाक हो चुके हैं.. अमेरिकी से इनकी नाराजगी अब अपने मुल्क के हुक्मरानो के साथ-साथ अवाम से भी होती जा रही है खासकर उन लोगों से जो कट्टरपंथ के खिलाफ गठबंधन सेनाओं की कार्रवाई को जायज ठहरा रहे हैं। पाकिस्तान की सरकार भी कह रही है कि इन आतंकवादियों का किसी धर्म समुदाय से कोई लेना देना नहीं है और आतंकवाद को पूरी तरह से खत्म कर दिया जाएगा।
और अब मतलब की बात... पाकिस्तान के हुक्मरान, वहां की फौज और आईएसआई सब इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ है कि मैरियट पर आत्मघाती हमले के पीछे किसका हाथ है। लेकिन नजरिये में बदलाव लाए बिना क्या आतंकवाद का एकजुट होकर मुकाबला करना मुमकिन है समझने वाली बात ये है कि क्या उनका आतंकवाद हमारे मुल्क के आतंकवाद से अलग है क्या उनके यहां होने वाले आतंकवादी हमले हमारे यहां अवाम की रूह में दहशत बनकर घुसपैठ करने में जुटे आतंकी मंसूबों से अलग हैं। हमले कहीं भी हो मरने वाले हमेशा बेकसूर लोग होते हैं.. परिवार के परिवार तबाह हो रहे हैं और ऐसा किसी एक मुल्क में नहीं बल्कि उन देशो में भी हो रहा है जिनके सुरक्षा इंतजामात हमसे भी कहीं ज्यादा बेहतर हैं। ऐसे में मुसीबत के दौर में अगर तेरे-मेरे की मानसिकता देखने को मिले तो इसे क्या कहेंगे...चैनल की न्यूज रीडर हो या सरकारी नुमाइंदे.. हिंदोस्तान में हो या पाकिस्तान में ...सभी को ये समझने की जरूरत है कि ये लड़ाई मानवता के खिलाफ खड़े हो रहे एक ऐसे राक्षस से चल रही है जो वायरस बनकर दुनियाभर के अलग-अलग मुल्क में रहने वाले तमाम इंसानों के जेहन में पैबस्त होने की कोशिश में जुटा है और अपने मंसूबे को कामयाब बनाने के लिए हर किसी को अलग-अलग तरीके से बहला-फुसला रहा है।
आपका हमसफर
दीपक नरेश

शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा की मौत



मोहनचंद नहीं रहे..एक इंस्पेक्टर की मौत.. दिल्ली पुलिस का इंस्पेक्टर,, जिसकी काबिलियत ने हम जैसों को महफूज रखा.. लंबे वक्त तक.. जिसका नाम भी हम शायद नहीं जानते थे आज उसकी मौत के बाद पता चला कि वो तो हिंदुस्तानियों का रखवाला था.. खामोशी से ले ली विदाई..बेरहम वक्त ने अचानक ही उसे हमसे छीन लिया..या सड़े हुए सिस्टम में रहने का उसने खामियाजा भुगता ..वो एक जांबाज अफसर था.. अपना फर्ज निभाते..निभाते उसने जान.. दे दी.. मोहनचंद शर्मा अचानक ही देश का हीरो बन गया.. जिंदगी की कुर्बानी देकर..जिसके बारे में हमारे पत्रकार दोस्तों का कहना है कि पिछले कई सालों में देश की राजधानी और उसके आसपास के इलाकों में आतंकवादियों से जितनी भी बड़ी छोटी मुठभेड़ हुई.. मोहनचंद शर्मा हमेशा उसका हिस्सा रहे.. उनकी दिलेरी का लोहा पूरा पुलिस महकमा मानता था..इतना ही नहीं...मोबाइल सर्विलांस पर उनकी समझ का लोहा दूसरे राज्यों की सुरक्षा ऐजेंसियां भी मानती है.. उनकी निशानदेही और जानकारियों के बलबूते कश्मीर और गुजरात पुलिस ने कई बड़े आतंकवादियों को मार गिराने में कामयाबी हासिल की..वो मोहन चंद शर्मा अब नहीं है..खबरों की दुनियां में आज उनका नाम सुर्खियों में है.. और कल के अखबार भी उनकी बहादुरी से रंगे रहेंगे.. लेकिन वो सवाल जो मोहनचंद पीछे छोड़ गए उनके जवाब कैसे तलाशे जाएंगे...कौन देगा उनके जवाब..देश के राजनेता स्वार्थी हैं.. देश का गृहमंत्री एक आम नागरिक से भी ज्यादा लाचार ..सिस्टम में इतने छेद है कि उनमें पैबंद लगाने की गुंजाइश की नहीं बची और आम आदमी के सिर पर दिक्कतों का इतना बोझ कि चंद सवाल ढोने भर की कूबत शायद उनमें नहीं..इन सब के बीच आतंक का साया हमारी रूह के करीब पहुंच रहा है.. देश के राजनेता तो महफूज हैं सुरक्षा घेर में और मर रहा है आम आदमी..शायद ये विडबंना ही है कि घड़ियाली आंसू बहाने में महारत रखने वाले इन राजनेताओं को समझ नहीं आ रहा कि ये राजनीति करने का वक्त नहीं है और मौत के इन कारोबारियों पर अगर वक्त रहते रोक नहीं लगी तो यूं ही परिवार के परिवार तबाह होते रहेंगे। मोहनचंद जैसे जांबाज अफसर की भरपाई आसान नहीं..अब भी अगर नहीं चेते तो कब चेतेंगे..
शहीद इंस्पेक्टर मोहनचंद को श्रद्धांजलि
आपका हमसफर
दीपक नरेश