मंगलवार, 19 फ़रवरी 2008

गिरिजेश भाई की 'बेतुक'बंदियां

1.
गुलों को रहता है इंतज़ार, मौसम-ए-बहार का
हम तो बेहया हैं, हर मौसम में खिलते हैं।।
2.
दर्द-ए-ग़म को बहुत पी चुका
अब इस ज़हर को पी लेने दो।
सिसक-सिसक कर बहुत जी चुका
अब सुकून से मर लेने दो।।
पीते दूध जला मुंह मेरा
छाछ फूंककर पी लेने दो।
खुली आंखों ठोकर ही खाई
ख्वाबों दो डग चल लेने दो।।
दर्द-ए-ग़म....
थोड़ा रूमानी हो जाएं...
जज़्बा-ए-इश्क़ का, जब भी उनसे इज़हार किया
जवाब में उन्होंने हरदम ही इनकार किया।।
ख़ता थी दिल की मेरे, क्यूं उनका ग़ुलाम हुआ
सज़ा में दिल का मेरे, रोज़ क़त्लेआम हुआ।
सज़ा कम करने का जब भी उनसे इसरार किया
जवाब में उन्होंने हरदम ही इनकार किया।।

भाई गिरिजेश मिश्र की कलम से....

मेरे तन में सिहरन,
और मेरा मन उदास है
उस मेमने की तरह,
भेड़िया, जिसके आस-पास है...
बड़ा डरा हुआ, सहमा सा
उसने सुनी है किसी मां की चीख
और, देखी है
संगीनों के साए में घिरी ज़िदगी,
मांगती, कुछ सांसों की भीख
उसी पल से,
बड़ा उदास है....
समझाता हूं नादां को,
डाल ले इन सबकी आदत..
तभी कर पाएगा
खुद की हिफाज़त
मगर, ये मानता नहीं..
शायद जब तक
ये हालात से हारता नहीं
तब तक इसके मन में
थोड़ी सी आस है..

रविवार, 17 फ़रवरी 2008

अरुण माहेश्वरी की किताब- एक कैदी की खुली दुनिया- से

पाब्लो नेरुदा की प्रेम कविताएं दुनियाभर में सराही जाती है। बेअंदाज रंगीनमिजाजी और बेपरवाह शख्सियत के मालिक नेरूदा ने अपनी जिंदगी में मुहब्बत की कई इबारतें लिखीं। नेरूदा की अधिकांश कविताओं में एक गहरा रूहानी एहसास है जो दिलो-दिमाग की तमाम सरहदों को खारिज करता है। नेरूदा की चंद पंक्तियां जो मुझे बेहद पसंद हैं..
कितना संक्षिप्त है प्यार,
और..
भूलने का अरसा..
कितना लंबा.....................

शनिवार, 16 फ़रवरी 2008

एक कवि के शब्द

एक जहर है चंदन वन में,

एक जहर मेरे मन में,

मैं दोनों के बीच खड़ा हूं,

जीने की लाचारी में..

बहुत देखने की कोशिश की,

दिखी ना कोई सूरत पूरी,

मैंने तो बस वही जिया,

जो था मेरे लिए जरूरी,

कोई कुछ भी अर्थ लगाए,

मेरी समझ सिर्फ यह आए,

हर सूरज सूली चढ़ता है,

रोज किसी अंधियारे में,

पता नहीं हम कितना रोए,

हंसने की तैयारी में.....