मंगलवार, 30 सितंबर 2008

ये कैसा लोकतंत्र ?


हर दिन एक हादसा होता है हर दिन एक उम्मीद दम तोड़ देती है.. कुछ इस तरह राजनेताओं की तसल्ली हमारे हौसले को सुकून देती है...आप इसे भले ही मेरी तुकबंदी का नाम दे.. लेकिन जिस दिन से देश के अनुभवी और बेहद काबिल गृह मंत्री शिवराज पाटील का दिल्ली धमाकों के बाद का बयान कानों में गया यकीन मानिए..तबसे कम्बख्त कान में ही घुसा हुआ है निकलने का नाम ही नहीं ले रहा..बड़ी कोशिश की कि धमाके के बाद फिर धमाके..फिर भगदड़ और फिर ..बेकसूरों की मौत को उनकी बदकिस्मती मान कर दिल को तसल्ली दे दी जाए कि इतनी बड़ी आबादी वाले लोकतंत्र में ये सब तो होता ही रहता है लेकिन आज जब जवानों की मौत की खबर अखबार में पढ़ी तो तय किया कि कोई सुने या ना सुने कहूंगा जरूर..
तो आज केवल दो खबरों का जिक्र करना चाहूंगा...पहली छत्तीसगढ़ में मंत्री महोदय की हेलिकॉप्टर सवारी सीआरपीएफ के दो जवानों की जिंदगी पर भारी पड़ गई और वो दोनों जवान बेमौत शहीद हो गए..शहीद लफ्ज का इस्तेमाल इस लिए कर रहा हूं क्योंकि ये जवान राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील के बस्तर दौरे में हुए नक्सली ब्लास्ट में जख्मी हुए थे और डॉक्टरों ने इन्हें तुरंत रायपुर ले जाने की सलाह दी थी.. लेकिन जिस हेलिकॉप्टर से इन्हें ले जाना था उस पर जाने के लिए राज्य के वन राजस्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल हड़बड़ी में थे। लिहाजा ये जवान इलाज के लिए रायपुर पहुंच ही नहीं पाए और जगदलपुर में ही इनकी मौत हो गई

खबर नंबर दो--- जोधपुर के मेहरानगढ़ किले के एक हिस्से में बने मां चामुंडा के मंदिर में भगदड़ मच गई औऱ पहले नवरात्र के मौके पर माता के दर्शन के लिए आए भक्तों में से 147 की मौत हो गई। मंदिर में भगदड़ की ये कोई पहली घटना नहीं है। लेकिन इस हादसे की एक वजह ये भी बताई जा रही है कि मंदिर में श्रद्धालुओं को नियंत्रित करने के लिए पर्याप्त सुरक्षाकर्मी वहां मौजूद नहीं थे। क्योंकि पुलिस महकमे के ज्यादातर आला अधिकारी उस वक्त मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की तीमारदारी में जुटे थे जो कहीं और पूजापाठ कर रही थीं।
वैसे तो लोकतंत्र की अच्छाइयां गिनाने के लिए विद्वानों के पास इतनी दलीलें होंगी कि मेरे सवाल औंधे मुंह आ गिरेंगे लेकिन फिर भी लोकतंत्र से जुड़े इन दो सवाल का जवाब मैं जरूर चाहूंगा..
सवाल नंबर एक-- अंग्रेजों के जमाने में गुलामी कानून था हमने उसके खिलाफ एक लंबी लड़ाई लड़ी औऱ आजादी के नाम पर लोकतंत्र का ईनाम पाया क्या ये वही लोकतंत्र है?
सवाल नंबर दो--लोकतंत्र के चार पाये में से एक है राजनीतिक सिस्टम...लेकिन इस सिस्टम ने लोकतंत्र को हाइजैक करके इसे आम आदमी के लिए परलोकतंत्र बना दिया है..जहां एक तरफ लकवे का शिकार प्रशासन है और दूसरी ओर वोट देकर इस बनाए रखने को बेबस जनता...और इन सबके बीच तेजी से सिर उठा रही है मौकापरस्तों की फौज.. वो मौकापरस्त जो किसी विचारधारा, किसी महत्वाकांक्षा या फिर अपनी दिक्कतों की दुहाई देकर लोगों को मौत के मुंह में धकेल रहे है। लोकतंत्र के नाम पर तेजी से सड़ रहे इस सिस्टम में इन मौकापरस्तों से लड़ने की कुछ गुंजाइश बची है क्या ?
ये वो सवाल हैं जो हर दिन जाती हुई जिंदगियों औऱ हर रोज तबाह होते किसी परिवार से सीधे जुड़े हैं.. संविधान में मौलिक अधिकारों के नाम पर जितने अनुच्छेद लिखे गए.. उससे हमेशा यही आस रही कि हर किसी को जिंदा रखना भले ही मुमकिन ना रहे ..लेकिन बेमौत मरने से रोकने की तो कोशिश जरूर की जाएगी.. जगदलपुर में जिन दो जवानों की बेहद लाचारगी में मौत हुई उनका कसूर क्या था... वो नक्सलियों वाले इलाके में राष्ट्रपति की सुरक्षा में लगाए गए थे या फिर उनका ओहदा इस लायक नहीं था कि उनकी जिंदगी बचाने को प्राथमिकता दी जाए.. मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि किसी राजनीतिक दल की जिला इकाई का कोई चूरनछाप नेता भी राष्ट्रपति के दौरे के बीच इस तरह के ब्लास्ट में घायल होता तो उसे बचाने के लिए राज्य का पूरा प्रशासनिक अमला ऐड़ी चोटी का जोर लगा देता..लेकिन ये जवान थे सीआरपीएफ के जवान..वो जवान जिनकी जिंदगी की अहमियत कुर्बानी के बाद ही पहचानी जाती है..लेकिन ये कैसी कुर्बानी जिसमें बेमौत मरने की बेचारगी दिखाई देती है..क्या इस तरह की खबरे सुनकर सेना और अर्धसैनिक बलों में काम करने वाले लाखों जवानों का मनोबल नहीं गिरता होगा.. जो मां-बाप इन खबरों को पढ़ते होंगे वो तो अपनी औलादों को अर्धसैनिक बलों में भेजने का ख्याल भी जेहन में लाने से बचेंगे...लेकिन अफसोस की बात ये है कि इस तरह के हादसे हमारे देश के नेताओं पर जरा भी असर नहीं डालते..
दूसरे वाकये में तो जिन लोगों की मौत हुई वो बेचारे तो भगवान के दर पर गए ही थे अपने और अपने परिवार की सलामती की दुआ करने.. लेकिन उन बेचारों को क्या पता था कि इस देश में उनकी जिंदगी भगवान के नहीं राजनेताओं के रहम के भरोसे है.. उन राजनेताओं के भरोसे जिन्हें भले ही वो अपना रहनुमा चुनते हैं लेकिन इस देश में वो भगवान से भी ज्यादा ताकतवर हैं.. और ऐसे हादसों के बाद उनकी ताकत की अहमियत कई गुना औऱ बढ़ जाती है...उनका कद इतना बड़ा है कि इस तरह के तमाम हादसों के बावजूद हमारा सिस्टम और हमारी एक अरब की आबादी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाती औऱ वो बयानों की चादर ओढ़ कर आराम से सोते रहते हैं..
याद आ रहा है बिहार में बाढ़ की राष्ट्रीय आपदा.. एक ईमानदार अफसर ( मुझे इस वक्त उसका नाम नहीं ध्यान आ रहा) ने बिहार के अफसरों को लगातार एक हफ्ते तक इस बात की चेतावनी भेजी कि कोसहा बांध किसी भी वक्त टूट सकता है लेकिन रिसीविंग एंड पर मौजूद अफसर तो छुट्टी पर चल रहे थे औऱ उनके पीछे उनका काम संभाल रहे अफसर ने ऐसे संदेशों पर ध्यान तक देने की जरूर नहीं समझी..नतीजा वो लोग जो घरों में अपने बीवी बच्चों के साथ सो रहे थे या फिर इस सिस्टम के भरोसे थे,..बेमौत भगवान को प्यारे हो गए..लाखों जिंदगियां तबाह हो गई..किसी का बेटा गया तो किसी का घऱ बार..औऱ खबरों से फलता फूलता रहा हर रोज का अखबार...और इन सबसे बीच लालू यादव जैसे मीडिया के चहेते राजनेता अपनी राजनीति चमकाने में जुटे रहे।।। लेकिन सबसे चौंकाने वाली बात ये रही कि इन सबके बीच कभी ये खबर नहीं सुनाई पड़ी कि आखिर इस तरह की चेतावनी को नजरअंदाज करने वाले अफसरों का क्या हुआ? क्या उनके खिलाफ होमीसाइड का मामला दर्ज किया गया और इस तरह की गंभीर लापरवाही बरतने के जुर्म में उन्हें बर्खास्त करने की कार्रवाई शुरु भी हुई या नहीं?
जब मैं पढ़ाई कर रहा था तो कुछ हिंदी के कवियों से भी साबका पड़ा.. उनकी कविताई में भले ही कोई दम नहीं नजर आया लेकिन उनकी एक अदा पर मैं हमेशा फिदा रहा.. वो ये कि कितनी भी घटिया कविताई करो लेकिन मार्केटिंग शानदार करो.. और वो भी कुछ इस तरीके से. कि अगर दो कवि दोस्त हैं तो उनके बीच एक मेमोरंडम ऑफ अंडरस्टैंडिग हमेशा दिखाई देती थी.. कि.. तुम मुझे पंत कहो और मैं तुम्हें निराला कहूंगा.. और इस तरह एक दूसरे के नाकारापन पर पर्दा भी पड़ा रहेगा औऱ महफिल में जमे भी रहेंगे
कुछ यही दिखाई देता है राजनीतिक और प्रशासनिक सिस्टम की ट्यूनिंग में....जहां राजनेता प्रशासनिक सिस्टम की हर खामी को नजरअंदाज करते हैं और बदले में प्रशासनिक सिस्टम उन नेताओं को अपना उल्लू सीधा करने में भरपूर मदद करते हैं..लेकिन इन सबके बीच सिस्टम को शिकंजे में ले चुके भ्रष्टाचार का सहारा लेकर देश को तोड़ने वाली ताकतें जो तबाही मचा रही हैं उसका शिकार हो रही है बेबस लाचार जनता...
दरअसल गौर से देखा जाए तो ये एक दुष्चक्र की तरह नजर आता है जिससे निकलने का कोई रास्ता नहीं..बस उम्मीद की एक किरन है जो वहां से आती दिखाई दे रही है जहां चंद अच्छे लोग ईमानदारी से इस कोशिश में लगे हैं कि आवाज उठाओ.शायद कभी ये आवाज अपना असर दिखाए और बेमौत मरती जिंदगियों को बचाने की ठोस कोशिश हो.. तब तक तो ये देश और इसकी जनता भगवान के ही भरोसे है.....
आपका हमसफर
दीपक नरेश

रविवार, 21 सितंबर 2008

इस्लामाबाद में आत्मघाती हमला


पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के मैरियट होटल के बाहर हुए आत्मघाती हमले में 54 लोगों की मौत हुई। मरने वालों में चेक गणराज्य के राजदूत इवो जदरैक भी शामिल हैं। इसके अलावा कई विदेशी नागरिक भी इस हमले में मारे गए। इस हमले में घायलों की तादात भी सैकड़ों में है। दुनियाभर के देशों ने इस हमले की कड़ी निंदा की है और आतंकवाद के खात्मे के लिए एकजुट होकर लड़ने की अपील की है। पाकिस्तान सरकार का कहना है कि उसे हमले की पूर्व जानकारी थी और इस बात की आशंका के मद्देनजर सुरक्षा के सभी इंतजाम किए गए थे। लेकिन ब्लास्ट के बाद के हालात को देखने के बाद तो ये कतई नहीं कहा जा सकता कि सुरक्षा के माकूल इंतजाम का पाक सरकार का दावा सही है। ऐसे में सुरक्षा के लिहाज से बेहद संवेदनशील इस इलाके में विस्फोट की घटना कई बड़े सवाल खड़ी करती है..मसलन क्या ये पाकिस्तानी जमीन पर अमेरिकी कार्रवाई की प्रतिक्रिया है या फिर कुछ और.. लेकिन एक दिलचस्प जानकारी जो मैं आपसे बांटना चाहूंगा.. पाकिस्तान के एक मशहूर टीवी की एंकर ने खबर पढ़ते वक्त दिल्ली धमाकों का जिक्र कुछ यूं किया.. पाकिस्तान में अबतक का ये सबसे बड़ा आत्मघाती हमला है और जैसा कि हम जानते हैं कि हमारे पड़ोसी मुल्क हिंदोस्तान की राजधानी दिल्ली में अभी हाल ही में बम धमाके हुए हैं ऐसे में इस आतंकवादी हमले के बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता कि इसे किसने अंजाम दिया.. इस बीच हमारे एक पत्रकार दोस्त ने खबर दी कि उसने पाकिस्तान हाई कमीशन में एक परिचित को फोन कर जानकारी चाही कि आखिर ये ब्लास्ट हुआ कैसे और इसके पीछे कौन है लेकिन हमारे पत्रकार बंधु का फोन जैसे ही उन महाशय ने उठाया..बिना हेलो हाय किए सीधे इन्ही से पूछ लिया कि ....भाई आप लोगों ने ये क्या करा दिया....
दूसरा पहलू.-- अब तक की जानकारी के मुताबिक इस हमले के पीछे तहरीक-ए-तालिबान के मुखिया बैतुल्लाह महसूद का हाथ बताया जा रहा है। वजीरिस्तान के आसपास के कबाइली इलाकों में अमेरिकी हमले से खासा बिफरे इस कट्टरपंथी संगठन के निशाने पर पाकिस्तानी हुक्मरान पहले से ही रहे हैं। ऐसी खबरें है कि पिछले कई महीने से इन कबाइली इलाकों में कार्रवाई को अंजाम दे रहे पाकिस्तानी सैनिकों से ये बेहद बेरहमी से पेश आते हैं। इनके हाथों अब तक कई पाकिस्तानी सैनिक हलाक हो चुके हैं.. अमेरिकी से इनकी नाराजगी अब अपने मुल्क के हुक्मरानो के साथ-साथ अवाम से भी होती जा रही है खासकर उन लोगों से जो कट्टरपंथ के खिलाफ गठबंधन सेनाओं की कार्रवाई को जायज ठहरा रहे हैं। पाकिस्तान की सरकार भी कह रही है कि इन आतंकवादियों का किसी धर्म समुदाय से कोई लेना देना नहीं है और आतंकवाद को पूरी तरह से खत्म कर दिया जाएगा।
और अब मतलब की बात... पाकिस्तान के हुक्मरान, वहां की फौज और आईएसआई सब इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ है कि मैरियट पर आत्मघाती हमले के पीछे किसका हाथ है। लेकिन नजरिये में बदलाव लाए बिना क्या आतंकवाद का एकजुट होकर मुकाबला करना मुमकिन है समझने वाली बात ये है कि क्या उनका आतंकवाद हमारे मुल्क के आतंकवाद से अलग है क्या उनके यहां होने वाले आतंकवादी हमले हमारे यहां अवाम की रूह में दहशत बनकर घुसपैठ करने में जुटे आतंकी मंसूबों से अलग हैं। हमले कहीं भी हो मरने वाले हमेशा बेकसूर लोग होते हैं.. परिवार के परिवार तबाह हो रहे हैं और ऐसा किसी एक मुल्क में नहीं बल्कि उन देशो में भी हो रहा है जिनके सुरक्षा इंतजामात हमसे भी कहीं ज्यादा बेहतर हैं। ऐसे में मुसीबत के दौर में अगर तेरे-मेरे की मानसिकता देखने को मिले तो इसे क्या कहेंगे...चैनल की न्यूज रीडर हो या सरकारी नुमाइंदे.. हिंदोस्तान में हो या पाकिस्तान में ...सभी को ये समझने की जरूरत है कि ये लड़ाई मानवता के खिलाफ खड़े हो रहे एक ऐसे राक्षस से चल रही है जो वायरस बनकर दुनियाभर के अलग-अलग मुल्क में रहने वाले तमाम इंसानों के जेहन में पैबस्त होने की कोशिश में जुटा है और अपने मंसूबे को कामयाब बनाने के लिए हर किसी को अलग-अलग तरीके से बहला-फुसला रहा है।
आपका हमसफर
दीपक नरेश

शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा की मौत



मोहनचंद नहीं रहे..एक इंस्पेक्टर की मौत.. दिल्ली पुलिस का इंस्पेक्टर,, जिसकी काबिलियत ने हम जैसों को महफूज रखा.. लंबे वक्त तक.. जिसका नाम भी हम शायद नहीं जानते थे आज उसकी मौत के बाद पता चला कि वो तो हिंदुस्तानियों का रखवाला था.. खामोशी से ले ली विदाई..बेरहम वक्त ने अचानक ही उसे हमसे छीन लिया..या सड़े हुए सिस्टम में रहने का उसने खामियाजा भुगता ..वो एक जांबाज अफसर था.. अपना फर्ज निभाते..निभाते उसने जान.. दे दी.. मोहनचंद शर्मा अचानक ही देश का हीरो बन गया.. जिंदगी की कुर्बानी देकर..जिसके बारे में हमारे पत्रकार दोस्तों का कहना है कि पिछले कई सालों में देश की राजधानी और उसके आसपास के इलाकों में आतंकवादियों से जितनी भी बड़ी छोटी मुठभेड़ हुई.. मोहनचंद शर्मा हमेशा उसका हिस्सा रहे.. उनकी दिलेरी का लोहा पूरा पुलिस महकमा मानता था..इतना ही नहीं...मोबाइल सर्विलांस पर उनकी समझ का लोहा दूसरे राज्यों की सुरक्षा ऐजेंसियां भी मानती है.. उनकी निशानदेही और जानकारियों के बलबूते कश्मीर और गुजरात पुलिस ने कई बड़े आतंकवादियों को मार गिराने में कामयाबी हासिल की..वो मोहन चंद शर्मा अब नहीं है..खबरों की दुनियां में आज उनका नाम सुर्खियों में है.. और कल के अखबार भी उनकी बहादुरी से रंगे रहेंगे.. लेकिन वो सवाल जो मोहनचंद पीछे छोड़ गए उनके जवाब कैसे तलाशे जाएंगे...कौन देगा उनके जवाब..देश के राजनेता स्वार्थी हैं.. देश का गृहमंत्री एक आम नागरिक से भी ज्यादा लाचार ..सिस्टम में इतने छेद है कि उनमें पैबंद लगाने की गुंजाइश की नहीं बची और आम आदमी के सिर पर दिक्कतों का इतना बोझ कि चंद सवाल ढोने भर की कूबत शायद उनमें नहीं..इन सब के बीच आतंक का साया हमारी रूह के करीब पहुंच रहा है.. देश के राजनेता तो महफूज हैं सुरक्षा घेर में और मर रहा है आम आदमी..शायद ये विडबंना ही है कि घड़ियाली आंसू बहाने में महारत रखने वाले इन राजनेताओं को समझ नहीं आ रहा कि ये राजनीति करने का वक्त नहीं है और मौत के इन कारोबारियों पर अगर वक्त रहते रोक नहीं लगी तो यूं ही परिवार के परिवार तबाह होते रहेंगे। मोहनचंद जैसे जांबाज अफसर की भरपाई आसान नहीं..अब भी अगर नहीं चेते तो कब चेतेंगे..
शहीद इंस्पेक्टर मोहनचंद को श्रद्धांजलि
आपका हमसफर
दीपक नरेश

सोमवार, 4 अगस्त 2008

भीड़ में एक चेहरा

कतरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं. मुझे बचाना समंदर की जिम्मेदारी है..दुआ करो कि सलामत रहे हिम्मत मेरी.. ये चिराग कई आंधियों पे भारी है.. वसीम बरेलवी ने जब ये शेर कहा होगा तो शायद उन्हें इस बात का एहसास जरूर रहा होगा कि बुराई के खिलाफ बोलने कहने और लड़ने वाले के लिए कितनी ताकत और हौसले की जरूरत होती है.. जेहानी और उससे भी ज्यादा शायद रूहानी ताकत के सहारे की.. आज कई हफ्तों बाद ब्लॉग पर लिखने का मौका जुटा पाया हूं तो सोचा क्यों ना उस आदमी की बात की जाए जो मेरे लिए भले ही अजनबी है लेकिन उसकी तबीयत के लोगों का कद्रदान होना मेरे लिए किसी खुशकिस्मती से कम नहीं.. नाम है उनका राजेश अग्रवाल और उनका ब्लॉग है सरोकार जिसका पता है.. http://sarokaar.blogspot.com/2008/08/blog-post.html आज यूं ही नेट पर चहलकदमी करते उनके ब्लॉग पर जा पहुंचा... जहां उन्होंने छत्तीसगढ़ के सरगुजा और जशपुर जैसे आदिवासी बहुल जिलों में पांव पसार रही या फिर कहें बेइंतहा गरीबी के बाईप्रोडक्ट के तौर पर पैदा हो रही एक ऐसी बीमारी का जिक्र किया है जो इन लोगों की जिंदगी को नरक बनाए दे रही है। कभी टमाटर की खेती के लिए मशहूर इस इलाके के लोगों की नाबालिग लड़किया गरीबी के चलते देह व्यापार के धंधे में उतारी जा रही हैं और वो भी नौकरी का लालच देकर हालांकि उरांव आदिवासियों के इलाके से इस तरह की खबरें पहले भी आती रही हैं लेकिन छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बनाए जाने के बाद ये उम्मीद जागी थी कि आदिवासियों की बेहतरी के लिए राज्य सरकार जरूर कुछ करेगी लेकिन इतना वक्त बीत जाने के बाद भी अगर हालात ज्यों के त्यों हैं तो ये वाकई चिंता की बात है...राजेश जी ने जो कुछ लिखा है उससे एक बात तो साफ है कि वर्तमान हालात के लिए सीधे तौर पर वो लोग जिम्मेदार हैं जो इन इलाकों में खेतीबाड़ी से रोजी रोटी पैदा करने के साधनों को पनपने नहीं दे रहे जिसके चलते यहां की मासूम लड़कियों को इस नरक में ढकेलने के लिए नौकरी का लालच दिखा कर महानगरों में लाया जा रहा है और फिर देहव्यापार के कारोबार में ढकेल दिया जाता है.. राजेश जी ने उरांव आदिवासियों की जिंदगी को कैंसर की तरह हर पल तबाह कर रही इस बीमारी को जितनी तफसील से बयां किया है वो हालात को उजागर करने के लिए काफी है... उनकी इस कोशिश का एक सकारात्मक पहलू ये है कि उन्होंने वो सब लिखा है जो एक आवाज बनकर उन लोगों तक पहुंच सकता है जो इसे रोकने के लिए वाकई बहुत कुछ कर सकते हैं..
आपका हमसफर
दीपक नरेश

शनिवार, 28 जून 2008

रियालिटी या क्रूएलिटी शो

आज टीवी रियलिटी शो के एक ऐसे पहलू का दीदार हुआ जो बेहद भयावह है....रंगीन सपनों की दुनिया जैसे नजर आने वाले इन रियालिटी शो की एक प्रतिभागी शिनजिनी को अपने हुनर और काबिलियत का जो ईनाम मिला उसने उसकी जिंदगी की तमाम खुशियां छीन ली..एक जिंदा लाश बनकर रह गई है शिनजिनी.. जिसने भी शिनजिनी को परफार्म करते देखा होगा उसको याद होगा शिनजिनी की मुस्कान उसका मासूम चेहरा उसकी खनकती आवाज और उसका बेहतरीन डांस.. लेकिन रियालिटी शो से निकाले जाने का सदमा शिनजिनी नहीं सह पाई..शिनजिनी ना केवल गहरे डिप्रेशन की शिकार हो गई.. उसको लगे सदमें का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उसने खाना-पीना तक छोड़ दिया औऱ एक दिन उसकी आवाज भी चली गई.. कहते हैं इसके पीछे शो के जजों के तीखे कमेंट्स भी काफी हद तक जिम्मेवार हैं जो सोलह साल की शिनजिनी की जिंदगी को खुशियों से बेजार कर गए.. शिनजिनी को करीब डेढ़ महीने पहले रियालिटी शो से बेदखल किया गया था लेकिन तब उसकी तबीयत ऐसी बिगड़ी कि फिर शिनजिनी संभल ही नहीं पाई.. कोलकाता की रहने वाली शिनजिनी का पहले स्थानीय अस्पतालों में इलाज कराया गया लेकिन बाद में उसकी मानसिक हालत ज्यादा बिगड़ने के बाद डॉक्टरों ने उसे बैंगलौर के स्पेशियलिटी अस्पताल निमहैंस रेफर कर दिया...फिलहाल शिंजनी बैंगलौर के निमहैंस अस्पताल में भर्ती है और ठीक होने का इंतजार कर रही है।
इस खबर का सबसे दर्दनाक पहलू ये है कि आजतक किसी भी रियालिटी शो की तैयारियों में किसी मनोवैज्ञानिक की सेवाएं नहीं ली गई..मैं ये आरोप इस लिए लगा रहा हूं क्योंकि मैंने कई बार उनके क्रेडिट रोल को गौर से देखा है(क्रेडिट रोल का मतलब शो में शामिल होने वाले लोगों और संगठनों की लिस्ट जो कार्यक्रम के अंत में दिखाई जाती है) लेकिन कभी भी किसी मनोवैज्ञानिक का नाम उस क्रेडिट रोल में पहचान के साथ नहीं दिखा....
और इस सब के बीच एक औऱ खराब बात....टीवी पर बुद्धिजीवी दिखने वाले इन तथाकथित जजों को तो कम से कम इतना संस्कार होना चाहिए था कि कुछ भी अंट-शंट बोलने से बचें इन बच्चों की प्रतिभा के साथ-साथ इनकी मासूमियत को भी तो सहेजा जाए..दुर्भाग्य है वो भी अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभा रहे औऱ रियालिटी शो के जरिये पैसा कमाने वाले लोगों का तो कोई कसूर हो ही नहीं सकता उन्होंने तो सब्जीमंडी में दुकान खोली ही है पैसा बनाने के लिए..दुआ करें कि शिनजिनी जल्दी ही अच्छी हो जाए और अपने घर वापस जाए.. हम फिर से उसे हंसते खिलखिलाते टीवी पर नाचते गाते देखें..
आपका हमसफर
दीपक नरेश

शुक्रवार, 27 जून 2008

अंडमान में भूकंप



अंडमान निकोबार में भूकंप के झटके आए हैं रिक्टर स्केल पर इसकी तीव्रता 6.7 मापी गई। ये भूकंप आज दोपहर में आया.. इसका केंद्र अंडमान से 150 किलोमीटर दूर समंदर में था..हालांकि इस भूकंप से जान-माल के नुकसान की कोई खबर नहीं है लेकिन सुनामी की आशंका से लोगों में दहशत औऱ खौफ पसरना स्वाभाविक है.. इस भूकंप की तीव्रता करीब करीब उतनी ही थी जितना गुजरात के भुज में आए भूकंप की थी.. भुज में भूकंप की तीव्रता 7.9 थी और वहां जिस कदर तबाही हुई थी उससे अंडमान और तमिलनाडु के तटीय इलाकों में रहने वाले लोगों में डर फैलना स्वाभाविक है...वैसे भी समुंदर में जब कभी भूकंप आता है तो सुनामी लहरें पांच- छह घंटे बाद ही फैलना शुरु करती हैं ऐसे में सुनामी की आशंका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता....वैसे इंडिया में सुनामी वार्निंग सेंटर ने अबतक किसी भी तरह की चेतावनी या अलर्ट जारी नहीं किया है लेकिन इन इलाकों में रहने वालों में खौफ और दहशत का माहौल ना बने इसके लिए उसे जरूरी जानकारियां वेबसाइटों और दूसरे मीडिया माध्यमों के जरिये जरूर देनी चाहिए
आपका हमसफर
दीपक नरेश

एक थी आरुषि....



आरुषि हत्याकांड में सीबीआई भी मुश्किलों में घिरती नजर आ रही है। सीबीआई ने जिस तरह से इस हत्याकांड को ब्लाइंड मर्डर बता डाला उससे एक बात तो साफ है कि ये केस या तो अचानक ही सुलझ जाएगा या फिर कभी नहीं सुलझेगा..बीच में ये बात सामने आई कि डॉक्टर तलवार हत्याकांड के बारे में कुछ ना कुछ जरूर जानते हैं लेकिन वो बताना नहीं चाहते वहीं डॉक्टर तलवार के कंपाउंडर कृष्णा को भी हत्यारा साबित करने में सीबीआई कामयाब नहीं हो पा रही है.. साथ ही वारदात में नौकरों की भूमिका को लेकर जो थ्योरी बनाई जा रही है उसमें भी इतने पेंच नजर आ रहे हैं कि लगता ही नहीं है कि इस तरह से सीबीआई हत्यारे का पता लगा पाएगी। दरअसल मामले की तह में जाकर देखें तो हत्याकांड के अगले दिन जिस तरह से जल्दबाजी में सबूतों को मिटा दिया गया..उससे किसी भी जांच ऐजेंसी को काम करने में दिक्कते खड़ी होनी ही थी..अबतक इस हत्याकांड की गुत्थी सुलझाने में जो कोशिशें हुई हैं उन्हें सिलसिलेवार ढंग से देखें तो एक बात समझ में आती है कि शुरुआती दौर में जब डॉक्टर राजेश तलवार को कातिल बताया जा रहा था तो उन्हें कातिल साबित करने के लिए जरूरी सबूत नहीं जुटाए जा सके..उसके बाद दुर्रानी परिवार पर शक गया तो उन्हें हत्यारे से ताल्लुक रखने या हत्या की जानकारी होने की बात साबित नहीं हो पाई..दरअसल दुर्रानी परिवार तो तलवार परिवार से ताल्लुक रखने के चलते बदनाम हो गया,.. यूपी पुलिस की लापरवाही से ना केवल उस परिवार का सोशल मर्डर हो गया बल्कि डॉक्टर अनिता दुर्रानी को मैक्स हॉस्पिटल ने अपने एडवाइजरी पैनल से भी बेदखल कर दिया नाम तो गया ही कमाई का जरिया भी बंद हो गया....अब बात करते हैं कृष्णा की.. तो कृष्णा को सीबीआई भले ही कातिल बता रही हो लेकिन सीबीआई को भी पता है की जरूरी सबूत जुटाए बिना वो अपनी बात साबित नहीं कर पाएगी...और अब राजकुमार और दूसरे नौकरों की बात.. नौकर इस वारदात में शामिल हो सकते हैं इसमें कोई दो राय नहीं लेकिन कोई नौकर किसी लड़की को उसी के घर में जबकि पास के कमरे में लड़की के मां बाप सो रहे थे..अचानक की मार डालने का जोखिम उठा लेगा..ये मुमकिन नहीं लगता और दूसरी बात इतने दिनों बाद भी जो नौकर आसानी से गिरफ्त में आ जा रहे हैं वो अगर कातिल होते तो पुलिस के शिकंजे में इतनी आसानी से नहीं आते.. चाहे जो हो आरुषि हत्याकांड का राज कब खुलेगा ये तो कोई नहीं जानता लेकिन जानने की दिलचस्पी तबतक इसी तरह बनी रहेगी..
आपका हमसफर
दीपक नरेश

बुधवार, 25 जून 2008

खबरें ये भी हैं....



बिहार में चर्चित इंजीनियर सत्येंद्र दूबे हत्याकांड का मुख्य आरोपी पुलिस हिरासत से फरार हो गया..
और किडनी किंग अमित कुमार को जमानत मिल गई..दोनों ही खबरें मीडिया में जगह नहीं बना पाईं,.. हालांति जब ये वारदातें हुई थीं या इनका खुलासा हुआ था तो ये मीडिया में अहम सुर्खियां बनी थी कई दिनों तक टीवी और समाचार पत्र पत्रिकाओं में दोनों ही खबरें छाई रहीं लेकिन सत्येंद्र को इंसाफ दिलाने में प्रशासन और पुलिस की कितनी दिलचस्पी रही इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सत्येंद्र दूबे हत्याकांड का आरोपी पुलिस की आंखों में धूल झोंक कर फरार हो गया...इसी तरह किडनी कांड की सही तरीके से जांच हो रही है या नहीं ये तो नहीं पता लेकिन गैरकानूनी तरीके से लोगों की किडनी निकालकर बेचने के धंधे का आरोपी ही इतनी आसानी से जमानत पा जाता है तो ये सिर्फ जांच एजेन्सियों की लापरवाही और पुलिस के गैरजिम्मेदाराना रवैये के चलते ही मुमकिन है.. आखिर क्या हो गया कि अदालत में पुलिस और जांच एजेंसियां कायदे से पैरवी नहीं कर पाई.. एक मामूली सा सर्जन कनाडा में बंगला खरीद कर रह रहा है फिल्मों में पैसा लगा रहा है और तो और इतने संगीन आरोपों से घिरा है मगर जांच होने तक उसे हिरासत में रखने में जांच एजेंसियां नाकाम रहीं और पुलिस प्रशासन का क्या कहना...पहले ही कई पुलिसवालों से इस डॉक्टर के लेन-देन के मामले उजागर हो चुके हैं..ऐसे में अगर वो पुलिस के शिकंजे से बाहर है तो सबूतों के साथ होने वाली छेड़छाड़ क्या कभी उन लोगों को इंसाफ दिला पाएगी..जो किडनी कांड के शिकार हो चुके हैं...या फिर सत्येंद्र को ईमानदारी दिखाने की जो सजा दी गई..क्या उसके घरवालों का भरोसा सिस्टम में बना रह पाएगा..और सबसे बड़ी बात ये इन सवालों का जवाब ढूंढने में किसी मीडिया वाले या फिर पुलिस प्रशासन के किसी अफसर की दिलचस्पी होगी.....
आपका हमसफर
दीपक नरेश

सोमवार, 16 जून 2008

कहानी आरुषि की...



आरुषि की मौत का राज अब तक नहीं पता चल पाया है.. सीबीआई रोज नई नई कोशिशों की बदौलत ये साबित करने की कोशिश कर रही है.. कि जांच जिस दिशा में जा रही है उससे हत्यारे का पता जल्दी ही चल जाएगा..लेकिन अब भी उसे तलाश है किसी ठोस सबूत की जिसके बिना पर वो ये साबित कर सके कि जांच महज हवाबाजी नहीं है....हालांकि सीबीआई के लिए ये केस भी अबतक के सबसे दुरूह वारदातों में से एक साबित हो रहा है इसमें कोई शक नहीं लेकिन मीडिया के दखल औऱ हर पल की खबर जनता तक पहुंचने से उसके हाथ-पांव भी फूलते नजर आ रहे हैं.. मीडिया में आकर जांच के बारे में बयान देते रहने का दबाव जहां उसके काम पर असर डाल रहा है वहीं लोगों की बेकरारी बढ़ती जा रही है ये जानने की आखिर हत्यारा कौन है...आज केस पर सीबीआई के अफसर के बयान से ये साफ है कि जांच अभी कुछ और वक्त लेगी.. साथ ही यूपी पुलिस पर सीबीआई की टिप्पणियों से ये तो साफ है कि पुलिस ने जिस तरह का गैरजिम्मेदाराना रवैया दिखाया उसने समूचे केस की ऐसी की तैसी कर दी...पुलिसवालों से जनता का भरोसा जिस तरह उठता जा रहा है वो ठीक नहीं..कम से कम बदनामी के जितने दाग यूपी पुलिस पर लग रहे हैं उससे तो साफ है कि इस महकमे में सुधार के लिए कोई सख्त कदम उठाए जाने चाहिए...ये सही है कि पुलिस को कई बार बेहद खराब परिस्थितियों से भी दो चार होना पड़ता है लेकिन वहीं तो उनकी काबिलियत औऱ कर्तव्य परायणता की परीक्षा होती है.. इस केस के बाद भी यूपी पुलिस अगर सबक नहीं लेती और गैरजिम्मेदाराना रवैया रखने वाले पुलिसवालों पर कार्रवाई नहीं करती.. तो इससे यूपी पुलिस की बची-खुची साख भी खत्म हो जाएगी... हालांकि मायावती सरकार की जो कार्यशैली है उससे लगता नहीं है कि कुछ कार्रवाई होगी लेकिन उम्मीद पर दुनिया कायम है. और अच्छे की उम्मीद तो हमेशा बनी रहती है..आज बस इतना ही..अलविदा
आपका हमसफर
दीपक नरेश

रविवार, 15 जून 2008

उफ ये 'टेरेफिक' सिस्टम...




दिल्ली का एक ही दर्द है..यहां पर हर सेवा सर्विस है और उस सर्विस की कीमत वसूलने में कोई मुरव्वत नहीं बरती जाती...फिर चाहे वो लोक सेवा हो या जन सेवा...हालांकि उसूलों को किताबी बातें मानने वालों को ये बेतुकी लग सकती है मगर जिसके लिए जिंदगी जद्दोजहद से कम नहीं उनके लिए ये कीमत वसूली एक सजा बन जाती है...मध्यमवर्ग के लिए तो ऐसी दुश्वारियों की एक लंबी चौड़ी फेहरिस्त ही बनाई जा सकती है.. अभी का एक वाकया बताता हूं आपको.. एक आदमी अपने परिवार के साथ मारुति 800 में शायद कनॉट प्लेस घूमने आया था....कार नई थी और उसमें एक भरा पूरा परिवार मौजूद था..जैसा कि हम विज्ञापनों की होर्डिंग्स में देखते हैं...विज्ञापनों की रंगीन दुनिया से झांक रहे सपनों की तरह इस कार में बैठे दो मासूम भी अपने बाहर की दुनिया को बड़े गौर से निहार रहे थे.. सुख उनके चेहरे से टपक रहा था औऱ रेड लाइट पर उनके ठीक पीछे अपनी कार में मौजूद मैं उनकी मासूमियत को देख रहा था... ट्रैंफिक सरकना चालू हुआ तो मेरी कार उनके पीछे थी..लेकिन एक जगह उनको शायद दिशा भ्रम हुआ कि उनको जाना किधर है ... ये मंटो ब्रिज के पास का वाकया है..उन्होंने अपनी कार रोकी और बैक करके पास में जा रहे एक साइकिल वाले से रास्ते के बारे में पूछना शुरु ही किया था..कि अचानक एक ट्रैफिक सिपाही वाला कूद कर उनके सामने आ खड़ा हुआ.. उसने बिना कुछ पूछे रसीद काटी और कार चालक के हाथ में थमा दी..कार चालक महोदय लाख कहते रहे कि उन्होंने कार बैक की थी रास्ता पूछने के लिए ..लेकिन ट्रैफिक पुलिस का वो कांस्टेबल मानने को तैयार नहीं दिखाई दे रहा था..मैं उनकी बातचीत का नतीजा क्या रहा ये तो नहीं जान पाया लेकिन एक बात जो मुझे समझ नहीं आई कि ट्रैफिक सिपाही को ऐसी क्या जल्दी थी कि बातचीत किए बिना या जरूरी कारण जाने बिना उसने चालान की पर्ची काटी.. दूसरी बात उनके ऊपर जिम्मेदारी है ट्रैफिक व्यवस्था दुरुस्त रखने की और वो ये काम एक जनसेवा के तहत करते हैं जिसके लिए उन्हें पगार दी जाती है औऱ उस पगार का पैसा सरकार लोगों से टैक्स के नाम पर वसूलती है.. ऐसे में चालान काटने के लिए ही ड्यूटी करना कौन सी कानून व्यवस्था है..अगर उसे लगता था कि उस आदमी ने ट्रैफिक नियम तोड़ा है तो उसे साइड में रोककर पूछताछ करना चाहिए था फिर चालान काटना शायद मुनासिब होता लेकिन बिना बात चालान काटने की कार्रवाई तो किसी तरह से वाजिब नहीं कही ता सकती ..क्या ट्रैफिक सिपाही वसूली के लिए ही ड्यूटी कर रहे हैं और अगर ऐसा हो रहा है तो ये बेहद खराब बात है...मेरा मानना है आम आदमी की कमर महंगाई की मार से पहले से ही टूटी हुई है ऐसे में उसे हर मोड़ और हर चौराहे पर लूटने का .ये तथाकथित कानूनी इंतजाम ठीक नहीं... ताज्जुब है इसके खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठाई जाती.. क्या दुनिया के दूसरे विकसित या विकासशील देशों में भी ट्रैफिक बंदोबस्ती के नाम पर ये अंधेरगर्दी चल रही है।
आपका हमसफर


दीपक नरेश

शनिवार, 31 मई 2008

चरैवेति..चरैवेति यानी चरते रहो..चरते रहो



एक जगह बांग्लादेशी हमसे बाजी मार गए...ये हुनर तो हमारे नाम पेटेंट होना चाहिए था..ऐसी कलाकारी के लिए तो हमारे देश के राजनेता ही कुख्यात..माफ कीजिएगा विख्यात हैं.. फिर बांग्लादेश इस बार कैसे बाजी मार गया.. जब ये खबर हमारे देश के नेताओं के कानों तक पहुंची तो उन्हें बेहद अफसोस हुआ.. ..लेकिन ये अचंभा हुआ कैसे...कहां हुई चूक..हर जगह भारी पड़ने वाले नेताओं के लिए ये मौका हाथ से कैसे निकल गया...नेताओं का जमावड़ा हुआ..सब जुटे और मिलबैठकर दिमागी घोड़े--गदहे जो भी होते हैं दौड़ाना शुरु कर दिया.. आखिर हमारे रहते इस पिद्दी से देश की ये मजाल कि जो खबर हममें से किसी की तारीफ से जुड़ी होनी चाहिए थी उसमें उनकी फोटू और नाम चमक रिया है.....चंद नेता जिनको अब तक पता भी नहीं था कि माजरा क्या है चुपचाप टुकटुकी लगाए हर बोलने वाले शख्स की सूरत निहार रहे थे..मन ही मन कुलबुला रहे थे कि काश एक बार मुद्दा पता चल जाता तो किसी को बोलने का मौका ही नहीं देता..हर किसी की डुग्गी बजा देता...मुझसे बड़ा बातूनी अफलातून कोई है यहां पर.. एक बार मुद्दा हाथ लग जाता तो ऐसा बोलता ऐसा बोलता कि सबकी बोलती बंद कर देता.....तभी एक आवाज हवा में गूंजी..खाआआआआ...मोशशशश.. मतलब साफ था मुद्दे का खुलासा होने वाला था.. एक कद्दू जैसी काया और बैगनी रंग से सराबोर नेता ने बामुश्किल बदन संभाल रहे पैरों को एक दूसरे का सहारा दिया और बैठे हुए सभी नेताओं के बीच से उठकर अंतरिक्ष से अपनी दूरी तनिक कम की...जुबान की गरदन गुटखा सहलाते सहलाते पहले ही टें हो चुकी थी सो उसी जुबान को मुंह में योगा कराने के बाद मुंह खोला और फिर फूटे चंद अल्फाज..भाइयों....नेता जाग चुके थे..मुंह खुल चुका था मुद्दा बस अब एक ही पल में हवा में अवतार लेने वाला था.....नेता जी जारी हो चुके थे.....ये बेहद अफसोस की बात है कि हम नेताओं के साफ सुथरे काजली इतिहास में कभी भी ऐसा मौका नहीं आया जब इतनी ज्यादा शर्मिंदगी और जलालत झेलनी पड़ी हो...हमारे पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना जो हम नेताओं के हुनर के मामले में हमारी मुंहबोली बहन लगती है.... उन पर भ्रष्टाचार के कुछ मुकदमें चल रहे थे...लेकिन आज ही ये ब्रेकिंग न्यूज मिली की उनके मुकदमें के अहम कागजात दीमक चाट गए...उनके वकीलों ने विशेष अदालत में जिरह के दौरान बताया कि कई पन्ने तो इतनी बुरी तरह खराब हो चुके हैं कि उन्हें पढ़ा ही नहीं जा सकता.....इतना ही नहीं इस बात की तस्दीक कराने के लिए कीड़ों की खाई फाइलों को अदालत में पेश भी किया गया..अब आप लोग ही तय कीजिए कि हिंदोस्तान में थोक के भाव हमारी जमात उपलब्ध है लेकिन ये यक्क आइडिया हम में से किसी के जेहन में क्यों नहीं आया.. सोचिए अगर ये फार्मूला हमारे हाथ पहले आ गया होता तो हमारे कितना सारे नेता भाइयों को जेल से अब तक छुड़ा लिया जाता उनको आजादी की खुली हवा में सांस लेने का मौका मिल जाता..हम में से कई बंधु कितनी तरह की तोहमत के साथ जी रहे हैं उनसे कब ना मुक्ति मिल जाती..
------मुद्दा सामने था.. सब शोक मना रहे थे कि ये फार्मूला अगर पहले ही उन तक पहुंच जाता तो कितना अच्छा रहता..आखिर आमराय ये बनी कि भले ही इस तरीके का इजाद बांग्लादेश में हुआ लेकिन इसको पेटेंट कराने की अर्जी दी जाएगी और ये साबित करने की कोशिश की जाएगी की ये फार्मूला चोरी का है और इसे हमारे देश से चुराया गया है ...इतना ही नहीं ये भी साबित करने की कोशिश की जाएगी कि काम के मामले में दीमक हमारे भाई हैं लिहाजा उनके सरंक्षण संवर्धन के लिए हर गांव गली कस्बे में एक संरक्षण केंद्र खोला जाएगा.. ताकि देश की तकदीर बनाने में उनका भी सक्रिय योगदान लिया जाए.....
------ और इस प्रस्ताव के साथ बैठक का समापन हो गया।
आपका हमसफर
दीपक नरेश

ये काम नहीं आसां..बस इतना समझ लीजे.....



नेता ही किसी देश की तकदीर संवार सकते हैं..औऱ नेताओं की मौजूदगी से ही लोकतंत्र संवर-निखर सकता है..नेता माने नेतृत्व माने देश का विकास..माने सब का कल्याण...माने ब्ला-ब्ला.. अद्भुत संकल्पना..भारत जैसे महादेश के संविधान में ना लिखी गई एक सच्चाई...मगर जो संविधान के हर हिस्से में पैबस्त है..नेताओं की खामोश मौजूदगी. वो बात अलग है कि नेता शब्द की जो परिभाषा और पहचान बताई गई थी उसमे आमूल-चूल परिवर्तन हो चुका है.. नेता अब ने..टा हो चुके हैं...कार्पोरेट समाज में कार्पोरेट नेटा मौजूद हैं....वो हाईटेक हैं..उनको पढ़े लिखे लोगों की जाहिलियत का अंदाज लगाने का हुनर आ गया है..वो सर्व विद्यमान टाइप का माहौल बनाने में भी महारत हासिल कर चुके हैं..एक ही वक्त पर वो किसी टीवी शो में. इंटरव्यू में. नाइट पार्टी में. और किसी जली हुई बस्ती का मुआयना करते नजर आ सकते हैं... कई तो ये भी भूल चुके हैं कि वो निरक्षर से थोड़े ही ज्यादा साक्षर हैं...वो नित नए नए हुनर सीख रहे हैं..जनता के सेवक ये नेटा..अब अपनी कीमत का अंदाजा लगा चुके हैं औऱ खुद की नेटाई को बनाए रखने के लिए लोगों की औकात आंकने में भी गलती नहीं करते....लेकिन नेटा अभी ग्लोबल नहीं हो पाए हैं..कई नेताओं का ये दर्द गाहे-बगाहे दिख जाता है.. अभी मेरे एक पत्रकार मित्र ने मुझे एक दिलचस्प वाकया सुनाया,..उनके एक नेता से थोड़ा दोस्ताना ताल्लुकात हैं नेता जी अकसर अपनी पहुंच और अपने रसूख के किस्से मेरे पत्रकार मित्र को सुनाते रहते हैं...वैसे ये सच भी है.प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी में उनकी खासी हनक है..एक डेलिगेशन का सदस्य बनकर नेता जी हाल ही में लंदन गए थे.. वहां दस दिन बिताकर जब वो वापस लौटे तो मुंह उतरा हुआ था.. मित्र ने हाल पूछा तो उनका दर्द छलक आया.. बोले बंधु मैं अभी लंदन में रह कर आया हूं लेकिन वहां रहने के बाद मुझे एहसास हुआ कि हम लोग कितने उम्दा किस्म के जाहिल और गंवार हैं...मित्र के बहुत कुरेदने पर बोले कि.. यार जब मैं हवाई जहाज मे चढ़ रहा था तो मेरा अंदाज ऐसा था मानो गांव वाली बस पर चढ़ रहा हूं..साला..प्लेन के दरवाजे पर पहुंचते ही हाथ अपने आप बस के दरवाजे पर लगे हत्थे को पकड़ने के लिए उठ गया. वहां खड़ी मोहतरमा ने अगर खुद को संभाला ना होता तो साला पिट ही जाता... लंदन पहुंचा तो हर वक्त दतून करने की ही तलब लगी रहती थी...खाना खाते वक्त ऐसा लगता था मानो आज दातून कुल्ला किया ही नहीं..ऊपर से सेमिनार और मीटिंग्स में भी बैठते थे तो ऐसा लगता था मानो किसी बाबा के प्रवचन सत्संग में शिरकत कर रहे हैं... दिमागी तौर पर जाहिल हैं भाई साहेब ऐसे में मंत्री कैसे बन पाएंगे..मेरा पत्रकार मित्र जो बेचारा बड़ी मासूमियत से सुन रहा था.. बोला निराश क्यों होते हैं नेता जी आप जैसे ही तो एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देखते हैं और सच तो ये है कि आप में ऐब हैं तो आप को दिख रहा है...औऱ यही तो सुधारना है..खुद सुधार लीजिएगा तो बेहतर नहीं तो जनता सुधारती रहेगी..हर साल इलेक्शन में...मित्र की बात नेता जी के पल्ले नहीं पड़ी वो बेचारे गुद्दी ही खुजाते रह गए...लेकिन दिल की भड़ास निकालने के बाद की राहत जरूर उनके चेहरे पर नजर आ रही थी..
तो दोस्तों ये तस्वीर है उस सच्चाई की जिसे हमारे देश के नेटा ग्लोबल होने की कोशिश में झेल रहे हैं...हो सके तो उनका दर्द दूर करने में कुछ कल्चरल सहयोग देने की कोशिश कीजिए...

आपका हमसफर
दीपक नरेश

शुक्रवार, 23 मई 2008

उसूलों पर टिकने की कीमत


यूपी के मुख्य सचिव प्रशांत कुमार मिश्रा ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है और स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का फैसला किया है.. वैसे तो ये मामूली खबर है और किसी अखबार में एक कॉलम की जगह पाने लायक ना नजर आए लेकिन उनके इस फैसले की वजहें बेहद गंभीर हैं जो राजनीति और प्रशासन के उस गठजोड़ से ताल्लुक रखती हैं जो समूचे सिस्टम को सड़ाने पर तुला है। एक गैरसरकारी संगठन को लखनऊ में 70 एकड़ जमीन देने के मायावती सरकार के फैसले के खिलाफ इस अफसर ने आवाज उठाई..उन प्रशासनिक अफसरों को भी ललकारा जो राजनेताओं की चापलूसी करके अपनी दुकानदारी चमकाने पर लगे रहते हैं..शुक्रवार को मंत्रिमंडल की बैठक में इस बहादुर अफसर ने मुख्यमंत्री के मुंह पर कह डाला कि वर्तमान व्यवस्था में कई काम नियमों का उल्लंघन करके हो रहे हैं और इनके बारे में मंत्रिमंडल को अवगत कराया जाना चाहिए। जाहिर है जब फायदा मुख्यमंत्री के चहेतों को ही मिलने वाला हो तो ऐसी बात सुनकर उनका भड़कना लाजिमी है। लेकिन प्रशांत मिश्र ने अपनी टिप्पणी वापस लेने के मुख्यमंत्री के निर्देश को मानने के बजाय नौकरी छोड़ना बेहतर समझा..भारतीय प्रशासनिक सेवा यानी आईएएस के 1972 बैच के वरिष्ठ अधिकारी प्रशांत मिश्र एक ईमानदार और उसूलों पर टिके रहने वाले अधिकारी के तौर पर जाने जाते हैं औऱ उनके करीबी भी उनकी मिसाल देते हैं.. लेकिन लगता है मायावती जी को अब ईमानदार अफसरों की जरूरत नहीं रह गई।..तभी तो जिन गरीब और मजलूम लोगों की आवाज बनकर उन्होंने यूपी का सिंहासन हासिल किया था उनके लिए काम करने में सक्षम अफसरों का ये हाल किया जा रहा है। ..चापलूसों से घिरी मायावती को ये समझना चाहिए कि वो अंतिम सत्ता नहीं हैं अगर यही हाल रहा तो जिस जनता ने उन्हें ये गद्दी नवाजी है वही जनता उन्हें इस गद्दी से उतारने में देर नहीं लगाएगी..आपको याद होगा चंद रोज पहले मैंने आपको बेकारू नाम के एक आदमी का किस्सा सुनाया था..और आपको जानकर ताज्जुब होगा कि सूबे का मुख्यमंत्री दलित होने के बावजूद बेकारू की एफआईआर आजतक नहीं लिखी गई....
आपका हमसफर
दीपक नरेश

गुरुवार, 22 मई 2008

किलिंग है तो ऑनर कैसा?



नोएडा के आरुषि हत्याकांड की गुत्थियां सुलझने का नाम नहीं ले रही..पुलिस परेशान..मीडिया परेशान और जनता भी परेशान..हर कोई बस एक ही सवाल का जवाब चाहता है कि आरुषि को किसने मारा..रोज नई नई थ्योरियां आती रहती है..कभी किसी को कातिल बताया जाता है तो कभी शक की सुई घर वालों की ओर घुमाई जाती है.. अब खबर ये आ रही है कि पुलिस तहकीकात जिस ओर जा रही है उससे शायद ये साबित किया जा सके कि ये मामला ऑनर किलिंग का है.. जब पहली बार इस जुमले को सुना था तो शायद ध्यान नहीं दिया था लेकिन आज पूरे दिन ये दो शब्द ज़ेहन पर कब्जा बनाए रहे...क्या इनके व्याकरणिक गठजो़ड़ की तरह इन दो शब्दों का कोई रिश्ता भी हो सकता है पहला सवाल जो दिमाग में आता है कि अगर किलिंग ही हो रही है तो फिर ऑनर कैसा..और अगर ऑनर है तो किलिंग की जरूरत ही क्या.. पहली बार में जरूर अटपटा लगा खुद से ये सवाल पूछना लेकिन बाद में दिमाग किसी बौराए साधू की तरह अफलातूनी गुणा भाग में रम गया....किसी की जान ले लेने का हक किसी को कैसे मिल सकता है.. और अगर कोई ये अपराध करता है तो उसके लिए सम्मान कहां से बचा रहता है.. दुबारा से कोशिश करते हैं इस सवाल को सीधा करने की... अगर सम्मान की खातिर किसी की जान ले ली जाती है तो फिर आप अपराधी हो गए क्योंकि आपने कानून को तोड़ा या कहें कानून हाथ में लिया.. ऐसे में किसी अपराधी को कोई समाज सम्मान की नजर से क्यों देखेगा..जबकि अपराध करने वाले ने समाज में इज्जत बचाने या बनाए रखने के नाम पर ही वारदात को अंजाम दिया है...भई अनपढ़ और जाहिल लोग अगर ऐसा करें तो समझ में आता है लेकिन पढ़े लिखे जाहिल अगर ऐसा करते हैं और वो भी ऑनर किलिंग का सहारा लेकर तो उनके लिए एक ही सजा होनी चाहिए कि उन्हें सरेआम फांसी पर लटका दो.. वैसे जब इस शब्द की तह में जाने की कोशिश शुरु हुई तो तमाम ऐसी भी जानकारियां पल्ले आईं..जो दिल दहला देने वाली हैं। मसलन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ऐसी वारदातों की एक लंबी फेहरिस्त है जिसमें एक ही गोत्र में शादी करने वाले लड़के लड़कियों को ऑनर किलिंग के नाम पर मौत दे दी गई।. बिहार के गांवों और झारखंड के आदिवासी इलाकों में ये आम बात है.. गुजरात के बनासकाठा औऱ राजमहल इलाकों में भी ऑनर किलिंग के मामले सामने आते रहे हैं...हरियाणा औऱ राजस्थान में ऑनर किलिंग की एक भरी-पूरी परंपरा मौजूद है.......क्या ये किसी सभ्य समाज की तस्वीर हो सकती है..या फिर ये सब सुनने के बाद कौन कह सकता है कि हम आधुनिक युग में जी रहे हैं......सबसे शर्मनाक पहलू ये है कि इन वारदातों को अंजाम देने वाली संस्थाएं इतनी ताकतवर और बर्बर हैं कि प्रशासन और देश का कानून भी इनके सामने बेबस और लाचार हो जाता है...देश के हर नागरिक को ये अधिकार है कि वो अपनी पंसद की जिंदगी जी सके और संविधान और कानून में इसके लिए मुकम्मल इंतजाम भी किए गए हैं लेकिन अफसोस की बात ये है कि प्रशासन और कानून का पालन करवाने वाली संस्थाओं को राजनीतिक सिस्टम के नाम पर एक ऐसे दुष्चक्र में फंसा कर रखा गया है कि वो अपना काम करने में लाचार हैं...अपराध, राजनीति..माफिया..भ्रष्टाचार, घूसखोरी, ये सब शब्द मानों प्रशासन और कानून का पर्याय बन चुके हैं। हमारी जिंदगी में ये ऐसा घुस चुके हैं जैसे खटिए में खटमल..और अब ऑनर किलिंग का प्रेत जो गांवों की दहलीज पर लगे पीपल के पेड़ से उतर कर बेताल की तरह हमारे दिमाग में जगह बनाने की जुगत भिड़ा रहा है.... कोई ताज्जुब नहीं कि एक दिन हम ऑनर किलिंग को सुनकर ऐसे ही रियक्ट करें मानो आमिर ने शाहरुख को कुत्ता कह दिया हो या करीना ने अपना प्रेमी बदल लिया हो..

आपका हमसफर
दीपक नरेश


राह बदल गई

कोई कहता है जमाना बदल गया है,
इश्क और दोस्ती का फसाना बदल गया है..
फितरत बदल गई है, उल्फत बदल गई है,
रिश्ते तो आज भी हैं, पर अफसाना बदल गया है..
गौर से देखिए तो कुछ अब भी है ऐसा,
जो न बदला था कभी, ना ही अब ही बदल गया है..
ये और बात है कि उनकी निगाह बदल गई है,
मंजिल तो वही है, पर अब राह बदल गई है...
उनकी राह में कभी हम भी थे, पर अब मुसाफिर बदल गए
हम आज भी हैं वही, पर मेरा यार बदल गया है...

आपका हमसफर
परमेंद्र मोहन

बुधवार, 21 मई 2008

मासूमियत बचाने की पहल


आज अखबार में एक खबर पढ़ी.. कहने को तो ये कारोबारी अखबार इकोनॉमिक टाइम्स मे छपी थी लेकिन इसका साबका है उन मासूम बच्चों से है जिनकी जिंदगी में खिलौनों के नाम पर अनजाने ही जहर घुल रहा है।। ब्यूरो ऑफ इँडियन स्टैंडर्ड्स यानी बीआईएस ने यूरोप के ईए 71 प्रावधानों की तर्ज पर तीन हजार करोड़ रुपये के भारतीय खिलौना बाजार में सुरक्षा मानक तय करने के लिए एक समिति बनाई है। ये समिति खिलौनों में खतरनाक रसायनों के इस्तेमाल पर रोक लगाने से जुड़ी सिफारिशें पेश करेंगी। आपको याद होगा कि अभी हाल ही में चीनी खिलौने से खतरनाक रसायन रिसने के कई मामले सामने आने के बाद अमेरिका ने चीनी खिलौने के आयात पर रोक लगाने की कवायद शुरु कर दी थी।..शुक्र है हमारे देश में ही देर से सही सरकार को सुध तो आई... बीआईएस की ये पहल स्वागत योग्य है।
वैसे चिंता की बात ये है कि भारत मे खिलौना बनाने का ज्यादातक जिम्मा असंगठित क्षेत्र के हाथ में है औऱ इस कारोबार मे जुड़े ज्यादातर लोग सुरक्षा मानकों की परवाह नहीं करते हैं। सस्ते खिलौने मुहैया कराने के नाम पर पीवीसी की बढ़ी हुई मात्रा वाला खिलौना जब मासूम बच्चों के हाथ में जब पहुंचता है तो उनकी जिंदगी खतरे में पड़ जाती है बावजूद इसके खिलौनों में पीवीसी के स्तर को लेकर सरकार की ओर से कभी भी कोई गंभीर प्रयास नहीं किए गए। आपको बता दूं पॉली विनायल क्लोराइड वो जहरीला रसायन है जो देशभर में मौजूद 35 फीसदी से भी ज्यादा खिलौने में मौजूद है...इसके अलावा कैडियम और लेड जैसे जहरीले पदार्थ तो होते ही हैं। अब सरकार ने सुध ली है तो हमें यही दुआ करनी चाहिए कि ये समिति जो सिफारिशे दे कम से कम उसे लागू करने में राजनेताओं के निजी स्वार्थ ना आड़े आए..
आपका हमसफर,
दीपक नरेश

ब्लॉगकैंप चलो....

दोस्तों, एक जानकारी जो आपतक पहुंचानी है.. मेरे ब्लॉगर दोस्त अमित भाई के मुताबिक इंडियन ब्लॉग एंड न्यू मीडिया सोसाइटी दिल्ली में पहला ब्लॉगकैंप आयोजित कर रही है जहां पर इकट्ठें होकर ब्लॉगर बंधु ब्लॉगिंग के चलन और उससे जुड़े विभिन्न आयामों जैसे फोटो ब्लॉगिंग, वीडियो ब्लॉगिंग, माइक्रो ब्लॉगिंग और ब्लॉग मार्केटिंग पर विचार विमर्श कर सकते हैं। इससे साथ-साथ ब्लॉगिंग के बुनियादी, शुरुआती मुद्दों से लेकर भिन्न तकनीकी और गैर तकनीकी मुद्दों पर वर्कशॉप भी होगी।

आप ब्लॉगकैंप में शामिल होकर कई तरीकों से सहयोग कर सकते हैं..
-- ब्लॉगिंग से जुड़े किसी विषय पर वर्कशॉप या लेक्चर देकर
-- किसी अन्य की वर्कशॉप या लेक्चर में सहयोग देकरट
-- ब्लॉग कैप में बारे में अपने ब्लॉग पर लिखकर
-- ब्लॉग कैंप से लाइव ब्लॉगिंग करके
साथ ही आप दूसरे ब्लॉगर बंधुओं से मिलने का भी मौका पा सकेंगे..
बस आपको शनिवार 24 मई 2008 को सुबह 9.30 बजे ...
माइक्रोसॉफ्ट कॉर्पोरेशन
पांचवी मंजिल, इरोस टॉवर्स
नेहरू प्लेस, प्लेस नई दिल्ली
पहुंचना है...और हां ये निशुल्क है...
ब्लॉग कैंप के लिए आप आज ही रजिस्टर कर सकते हैं..
http://www.barcamp.org/BlogCampDelhi

शुक्रिया,

आपका हमसफर
दीपक नरेश

शनिवार, 17 मई 2008

दास्तान-ए-छीछालेदर

बॉलीवुड पर ब्लॉग वार.. यानी एक्टिंग की छीछालेदर.. जी हां यही हो रहा है आजकर बॉलीवुड में...अमिताभ हो या आमिर सब अपना-अपना तीर कमान लिए जुटे हैं ..कोई शाहरुख की ऐसी की तैसी कर रहा है कोई सलमान की ..लेकिन समझ में ना आने वाली बात ये है कि भइया आपलोगों की तो उम्र भी नहीं रही पब्लिसिटी की कबड्डी खेलने की तो फिर ये हू..तू...तू...तू...तू..तू...तू क्यों.. भई बड़े लोगों के बड़े चोंचले.. इनके अंदाज निराली तो जाहिर है लड़ाई भी निराले अंदाज में होती है..लेकिन गौर करने की बात ये है कि पहले तो जमकर झांव-झांव करते हैं उसके बाद सलामत रहे दोस्ताना हमारा..का राग छेड़ देते हैं.....ये तो गजब का ड्रामा है भई...अपनी जवानी तो दोस्ती में गुजारी..लेकिन बुढ़ापा खराब कर रहे हैं तू-तू मैं-मैं में.. दोस्तों गौर से देखा जाए तो इस सारे ड्रामे के पीछे एक ही खलनायक है वो है..पैसा..
दरअसल बॉलीवुड की दुनिया में जिस तरह पैसा आ रहा है..या यूं कहें की बॉलीवुड दुनियाभर के निवेशकों के खजाने को लुभा रहा है उससे एक बात तो साफ है कि हर कोई उसमें से ज्यादा से ज्यादा शेयर खाने के चक्कर में है.. अब जबकि एक ही सुपरस्टार का दौर नहीं रहा और नयी फसल ज्यादा ऊर्जा और तेवर के साथ अपनी मौजूदगी दर्ज कराने की कोशिश कर रही है तो ये लाजमी है कि जमे-जमाए लोग अकुलाहट औऱ बेचैनी महसूस करें...कई सुपरस्टार तो ये भी भूल गए कि जनता के बीच उनकी स्थिति भगवान जैसी है और उन्हें इस तरह लड़ते और ओछी हरकतें करते देखकर उनके चाहने वालों को कितना बुरा लगता होगा..लेकिन भई वो तो सिर्फ एक चीज पहचानते हैं और वो है पैसा..पैसा ही उनका माई-बाप है भगवान है खुदा है.. औऱ खुद वो अगर कुछ हैं तो पैसे के मोहताज..
कुछ सितारों के साथ एक चीज लगता है फेविकोल की तरह चिपक गई है.. और वो है उनकी निजी जिंदगी का ड्रामा... इनकी कहानी में कुछ ट्विस्ट है.. कुछ पेंच है.. और अगर कुछ नहीं है तो खुद वो ही ड्रामा बने हुए हैं.... यहां एक बात मैं और कहना चाहूंगा कि मैंने इस पूरे लेख में किसी स्टार का नाम नहीं लिया है और ना ही लूंगा इसकी वजह ये है कि मैं किसी भी स्टार के चाहने वालों को आहत नहीं करना चाहता ..लेकिन भइया.. जब इन लोगों को हैसियत छोड़कर औकात पर उतरते देखता हूं तो कष्ट होता है.. ऐसा लगता है कि इन लोगों को इस बात से कोई मतलब ही नहीं कि इनको स्टार बनाने वाली जनता है औऱ जनता की नजरों में गिरने के बाद इनको पूछनेवाला कोई नहीं होगा। ....ये पूरा लेख अधूरा रह जाएगा अगर मैंने यहां इस बात का जिक्र नहीं किया कि कमाई की दौड़ में इज्जत आबरू रण में छोड़ सरपट दौड़ रहे इन सुपरस्टारों में कई ऐसे भी हैं जिन्होंने अभी ओछेपन की चादर नहीं ओढ़ी है और इस दास्तान-ए- छीछालेदर से दूर अपने काम में पूरी संजीदगी से जुटे है.. (वैसे ये भी गौर करने वाली बात है कि इनमें से कई ऐसे भी हो सकते हैं जो अभी इतने बड़े स्टार नहीं बने कि दास्तान-ए-छीछालेदर कर सके)..
आपका हमसफर
दीपक नरेश

बुधवार, 14 मई 2008

एक अनछुई कविता.....


दोस्तों, आज बात हिंदी कविता की....हिंदी कविताओं की दुनिया में ऐसी तमाम चीजे हैं जिनका जिक्र बेहद जरूरी होते हुए भी कम ही हुआ है...दरअसल जब कभी लीक से हटकर कोई काम हुआ तो उसको बने-बनाए ढर्रे पर ही तोला गया और अगर किसी रचनाकार के अंदाज से वो कविता मेल नहीं खाई तो उसका जिक्र अलग से करने की जहमत नही उठाई गई...एक ऐसी ही कविता.....

छंद बंध ध्रुव तोड़फोड़ कर पर्वत कारा,
अचल रूढ़ियों सी कवि तेरी कविता धारा,
मुक्त अबाध अमंद रजत निर्झर सी निसृत,
गलित ललित आलोक राशि चिर अकुलिष अविजित,
स्फटिक शिलाओं से वाणी का तूने मंदिर,
शिल्पि बनाया ज्योतिकलश निज यश का घर चिर,
अमृत पुत्र कवि यशाकाय तव जरा मरण चित,
स्वंय भारती से तेरी ह्रतंत्री झंकृत.....

ये कविता इस मायने मे दुर्लभ है कि इसे लिखने वाले ने अपने जीवन में इसके अळावा कोई दूसरी इतनी क्लिष्ट कविता नहीं लिखी.. हिंदी कविता को जानने समझने वालों को पहली नजर में ये निराला की कविता लगेगी..वैसे इसका ताल्लुक निराला से है मगर इसे उन्होंने लिखा नहीं है बल्कि ये उनके लिए लिखी गई थी..औऱ इसे लिखने वाले थे राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त (मेरी जानकारी में ये गुप्त जी की ही कविता है.. अगर कोई मित्र इस रचना को किसी और कवि का होने की जानकारी रखता है तो जरूर बताए.) ....इस कविता में छंदों और संस्कृतनिष्ठ शब्दों का जितना बेहतरीन इस्तेमाल हुआ है वो निराला और प्रसाद के रचनालोक से बाहर कम ही देखने को मिला है। निराला के निराला अंदाज में कविताई की क्या वजह थी ये तो मैं नहीं जानता (किसी ब्लॉगर भाई को पता तो ये जानकारी भी मुहैया करवाने का कष्ट जरूर करें) मगर दिलचस्प बात ये है कि गुप्त जी की कविताओं का जब-जब जिक्र हुआ है ये कविता हमेशा नदारद रही है..

आपका हमसफर

दीपक नरेश

मंगलवार, 13 मई 2008

कुछ भूले बिसरे लोग..

भजनों नाटकों और एकांकियों के जरिये देशभर में आध्यात्मिक जागरण की अलख जगाने वाले पं राधेश्याम कथावाचक का भले ही आज उतना नाम ना लिया जाता हो लेकिन उन्हें जानने वाले इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि उन्होंने रामकथा को एक ऐसी शैली में पेश किया कि वो गांव के चौपाल से निकल कर रामलीला और रंगमंच से होते हुए जन-जन के मन में समा गई।
पं राधेश्याम जी का जन्म बरेली के परम भागवत पंडित बांके लालजी के पुत्र के रूप में 25 नवंबर 1890 को हुआ था उनके पिता ने उन्हें गायन औऱ धार्मिक पदों की रचना करने के लिए हमेशा प्रोत्साहित किया. रामचरितमानस उनका सबसे पसंदीदा ग्रंथ था लिहाजा उन्होंने रामकथा के ही काव्यमय लेखन करने का फैसला किया.. जब उनकी राधेश्याम रामायणी तैयार हुई तो फिर उसे लोगों तक पहुंचने औऱ लोकप्रिय होने में देर नहीं लगी. पंडितजी की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उस दौर की सबसे मशहूर नाटक कंपनी न्यू अल्फ्रेड ने भी पंडितजी के कई नाटकों का मंचन करने का फैसला किया, कहना ना होगा कि उनकी राधेश्याम रामायणी की तरह उनके नाटक भी काफी लोकप्रिय हुए..
बरसों पहले गांव में रामलीला देखने के दौरान सुनी हुई राधेश्याम रामायणी की चंद पंक्तियां..ये प्रसंग है शूर्पनखा औऱ रावण के बीच संवाद का..जब शूर्पनखा ने नाक काटे जाने पर रावण से जाकर दुखड़ा रोया था..

हे भाई दो लड़के राम-लखन
इस दंडक वन में आए हैं..
सीता सुकुमारी नारी को
अपने ही संग में लाए हैं..
बांके औऱ वीर लड़ाके हैं..
गोय़ा शमशीर उन्हीं की है
वो पंचवटी में रहते हैं..
मानों जागीर उन्ही की है..
नागाह उधर से निकल पड़ी..
उस नारी से मिलना चाहा..
बदले में निगोड़े लक्ष्मण ने.
उससे कुछ छल करना चाहा..
जब मैंने तेरा नाम लिया..
सुनते ही उसने दी गाली..
औ' मेरे कान काट लाए
औऱ मेरी नाक काट डाली...

दोस्तों..मौका लगे तो इसे पढ़िए,.राधेश्याम प्रेस बरेली ने राधेश्याम रामायणी का प्रकाशन भी किया है...काफी दिलचस्प अनुभव रहेगा ।

आपका हमसफर
दीपक नरेश

जयपुर में आतंकवादी ब्लास्ट

खूबसूरती के शहर जयपुर पर आज आतंकवाद का काला साया पड़ गया। एक के बाद एक तेरह धमाकों ने सत्तर से भी ज्यादा लोगों की जान ले ली.. लेकिन ये महज एक आतंकवादी घटना नहीं समझी जानी चाहिए.. इंसानियत के दुश्मन इससे जो हासिल करना चाहते हैं वो मकसद कुछ भी क्यों ना हो.. किसी के भले के लिए तो कतई नहीं हो सकता.. बेकसूर और निरीह लोगों की जान लेने वाले इन दरिंदों का भले ही इस बात से वास्ता ना हो कि मरने वाले कौन हैं लेकिन आखिर वो भी तो इंसान ही थे..और आतंक के इन सौदागरों के मकसद से उनका दूर-दूर तक वास्ता भी नहीं था.. तो फिर उनको निशाना क्यों बनाया गया..दुनियाभर में आतंकवाद का जिस तरह एक सुर में विरोध हो रहा है उससे आतंकवादियों में हताशा होनी स्वाभाविक है... वैसे भी पिछली कई घटनाओं को देखकर एक बात तो साफ है कि आतंकवादियों का कोई धर्म ईमान नहीं.... हैदराबाद की मक्का मस्जिद हो या फिर वाराणसी का संकटमोचन मंदिर.. जब उन्होंने खुदा या भगवान (अगर ऐसी किसी सत्ता में इन आतंकियों का यकीन हो तो) के घर को नहीं बख्शा तो फिर इंसानी जिंदगी को वो कितनी तवज्जो देते होंगे इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है.....हम जानते हैं कि आतंकवाद का साया अब हमारे जेहन से उतर कर रूह में पैठ बनाने की कोशिश कर रहा है लेकिन कहते हैं ना कि हर वो मंसूबा जिसका पूरा करने का तरीका पाक ना हो वो कभी कामयाब नहीं हो सकता...दुनिया के किसी कोने में बैठकर ये आतंकी भले ही इस वक्त अपने मिशन की कामयाबी पर मुस्करा रहे हों..लेकिन इन लोगों को बेकसूर इंसानों का खून बहाने की कीमत चुकानी ही पड़ेगी..चाहे आज चाहे कल....
आपका हमसफर,
दीपक नरेश

गुरुवार, 8 मई 2008

मेरी पसंद


नफरत ही वो करता जो ना करता वो मोहब्बत,
वो शख्स किसी बात पे तैयार तो होता,
पढ़कर जिसे बेखौफ मैं एक बार तो होता,
ऐसा भी किसी रोज का अखबार तो होता ।
--
मैदां में हार जीत तो किस्मत की बात ,है
टूटी है किसके हाथ में तलवार देखना,
हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी,
जिसको भी देखना हो कई बार देखना ।
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वक्त ने मेरे बालों में चांदी भर दी,
इधर-उधर आने-जाने की आदत कम कर दी,
आइना ठीक ही कहता है ,
एक जैसा चेहरा-मोहरा किसका रहता है,
इसी बदलते वक्त सहरा में लेकिन,
कहीं किसी घर में ,
एक लड़की ऐसी है,
बरसों पहले जैसी दिखती थी ,
अब भी बिल्कुल वैसी है

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परिंदों को मिलेगी मंज़िल, ये फैले हुए उनके पर बोलते हैं
वही लोग खामोश रहते हैं अक्सर, जमाने में जिनके हुनर बोलते हैं

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मैं दुनिया के मेयार पर नहीं उतरा
दुनिया मेरे मेयार पर नहीं उतरी
मैं झूठ के दरबार में सच बोल रहा हूं
हैरत है सर मेरा कलम नहीं होता

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ऊंची इमारतों से घिर गया मेरा मकां
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए

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आपका हमसफर

दीपक नरेश

हमारी विरासत


आज बात मासूमियत को हर्फों की जुबां देने की कुछ नायाब कोशिशों की.. हिंदी साहित्य में केवल निराला का नाम इस बात के लिए काफी फक्र से लिया जाता है कि बेटी की असमय मौत पर लिखी गई शोक कविता 'सरोज स्मृति' में जो कुछ उन्होंने लिख दिया वैसा ना तो कभी उनके पहले लिखा गया ना ही उनके बाद.. विश्व साहित्य में शायद ये सबसे पहली औऱ आखिरी कविता है जिसमें एक पिता ने अपनी बेटी के लिए अपने एहसास को शब्दों में पिरोया है...एक बानगी

श्रृंगार रहा जो निराकार,
रस कविता की उच्छवसित धार,
गाया स्वर्गीया प्रिया संग,
भरता प्राणों में राग रंग..
रति रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदलकर बना मही,

लेकिन उर्दू साहित्य में भी एक शायर ऐसे हैं जिसने अपनी बेटी की मासूमियत को जुबां देने की एक खूबसूरत कोशिश की है और ये शायर हैं जनाब निदा फाजली...


( अपनी बेटी तहरीर के लिए)


वो आई,

और उसने मुस्कुरा के,

मेरी बढ़ती उम्र के,

सारे पुराने,

जाने-पहचाने बरस,

पहले हवाओं में उडा़ए,

और फिर,

मेरी ज़बाँ के सारे लफ़्ज़ों को,

ग़ज़ल को,

गीत को,

दोहों को,

नज़मों को,

खुली खिड़की के बाहर फेंक कर,

यूँ खिलखिलाई,

कलम ने मेज़ पर लेटे ही लेटे,

आँख मिचकाई,

म्याऊँ करके कूदी,

बंद शीशी में पडी़ स्याही,

उठा के हाथ दोनो चाय के कप ने ली,

अंगडा़ई,

छ्लाँगे मार के हंसने लगी,

बरसों की तन्हाई,

अचानक मेरे होठों पर,

इशारों और बेमानी सदाओं की,

वही भाषा उभर आई,

जिसे लिखता है सूरज,

जिसे पढ़ता है दर्या,

जिसे सुनता है सब्ज़ा,

जिसे सदियों से बादल बोलता है,

और हर धरती समझती है,


हालांकि आमतौर पर ऐसी कोशिशों का अलग से कोई जिक्र नहीं होता लेकिन दोनों ही रचनाएं हमारी माटी की देन हैं ये सोचकर काफी सुकून मिलता है..
दरअसल गौर से देखें तो हिंदोस्तानी साहित्य में ऐसी तमाम नायाब कोशिशें बिखरी पड़ी हैं बस जरूरत है उनको ढ़ूंढकर उनकी खासियत को अलग से पहचान देने की..

आपका हमसफर
दीपक नरेश

बुधवार, 7 मई 2008

जिंदा रहने की दिक्कत

दोस्तों, आज बात एक ऐसी बुराई की जिसका ताल्लुक तो समाज से है मगर इंसानी मगज में वो एक ना खत्म होने वाले वायरस की तरह पैबस्त है...आज मुझे एक ऐसे आदमी का फोन आया जिसका नाम बेकारू है..नाम से तो मैं उसे नहीं पहचान पाया लेकिन जब उसने मुझे बताया कि जिस इंटर कॉलेज में मैंने पढ़ाई की है वो वहां का चपरासी है तो एक दुबले-पतले टेढ़ी पीठ वाले बेचारगी से लबरेज इंसान की तस्वीर जेहन मे कौंध गई..उसको किसी ने बताया था कि मैं मीडिया में हूं तो उसने अपनी दिक्कतों में मेरी मदद की आस से फोन किया था.. अब मैं जो बता रहा हूं उसे गौर से पढ़िएगा। दरअसल बेकारू दलित है और पिछले कई बरस से एक जाति समुदाय के टीचर उससे नाराज रहते थे..समय के साथ जब उसने भी अपने हक जैसे एरियर, परीक्षा की ड्यूटी के दौरान मिलने वाले भत्ते के लिए आवाज उठानी शुरु की तो उसे तंग किये जाने का सिलसिला शुरु गया..इसी कड़ी में पिछले कुछ दिनों से उसे कॉलेज मे हाजिरी रजिस्टर पर दस्तखत नहीं करने दिया जा रहा था आखिर एक दिन जब तंग आकर उसने आरोपी टीचरों से थोड़ी तल्ख आवाज में बात की तो उनलोगों ने मिलकर उसे पीटना शुरु कर दिया किसी तरह उनकी चंगुल से निकलकर बेकारू जब थाने पहुंचा तो थाने मे भी उसकी गुहार नहीं सुनी गई औऱ उसे डांट डपट कर भगा दिया गया.. आज हालत ये है कि इस घटना को बीस दिन से ज्यादा बीत चुके हैं और बेकारू मुख्यमंत्री, राज्यपाल औऱ मानवाधिकार आयोग को भी अर्जी भेज चुका है लेकिन ना तो अब तक उसकी एफआईआर दर्ज की गई है औऱ ना आरोपी टीचरों पर कोई कार्रवाई की गई है...इतना ही नहीं अब भी कॉलेज में उसके साथ होने वाली बदसलूकी चालू है....जब कुछ स्थानीय पत्रकारों और स्वंयसेवी संगठनों ने बेकारू की एफआईआर दर्ज करने की पैरवी की तो उसे भी नजरअंदाज कर दिया गया। हैरत की बात ये है कि इस वक्त उत्तर प्रदेश मे मायावती की सरकार है जो हमेशा दलितों के हितों का ढिंढोरा पीटती रहती हैं...लेकिन अगर बेकारू जैसे लोगों को इंसाफ दिलाने की बात आती है तो उनका प्रशासन तंत्र नाकारा साबित हो रहा है....आपको बताऊं तो उसके साथ बदसलूकी करने वालों में एक शख्स ऐसा भी है जिसने मुझे पढ़ाया है लेकिन अब पीछे मुड़कर देखता हूं कि बच्चों की तकदीर संवारने का जिम्मा उठाने वाले वो सम्मानित टीचर खुद इंसानियत औऱ भलमनसाहत की तमीज नहीं सीख पाए..खैर इंसाफ की इस लड़ाई में बेकारू के साथ काफी लोग हैं और उसको इंसाफ दिलाने के लिए आवाज भी उठ रही है.. मुमकिन है कल उसकी एफआईआर लिख ली जाए और उस एफआईआर पर कार्रवाई भी हो जाए.. मगर उस बीमारी का क्या होगा जिसका जिक्र मैंने शुरु में किया.. अगर तहजीब का ककहरा सिखाने वाले लोगों की मानसिकता ये है तो इस समाज का भगवान ही भला करे.......
आपका हमसफर
दीपक नरेश

मंगलवार, 6 मई 2008

मेरी पसंद

अली सरदार जाफरी साहेब की रचना...

फिर इक दिन ऐसा आयेगा,

आँखों के दिये बुझ जाएँगे..

हाथों के कवँल कुम्हलाएँगे,

और बर्गे-ज़बाँ से नुक्तो सदा

की हर तितली उड़ जाएगी..

इक काले समन्दर की तह में.

कलियों की तरह से खिलती हुई.

फूलों की तरह से हँसती हुई.

सारी शक्लें खो जाएँगी,

ख़ूँ की गर्दिश,

दिल की धड़कन,

सब रागनियाँ सो जाएँगी,

और नीली फ़ज़ा की मख़मल पर,

हँसती हुई हीरे की ये कनी,

ये मेरी जन्नत, मेरी ज़मी,

इसकी सुबहें, इसकी शामें,

बे-जाने हुए, बे-समझे हुए,

इक मुश्ते-गु़बारे-इंसा पर,

शबनम की तरह रो जाएँगी,

यादों के हँसी बुतखा़ने से.

हर चीज़ भुला दी जाएगी..

फिर कोई नहीं ये पूछेगा..

सरदार कहाँ है महफ़िल में,

---

लेकिन मै यहाँ फिर आऊँगा,

बच्चों के दहन से बोलूँगा,

चिड़ियों की ज़बां से गाउंगा,

जब बीज हँसेंगे धरती में,

और कोंपलें अपनी उँगली से,

मिट्टी की तहों को छेड़ेंगी,

मै पत्ती-पत्ती, कली-कली,

अपनी आँखें फिर खोलूँगा,

सरसब्ज़ हथेली पर लेकर,

शबनम के क़तरे तोलूँगा,

मैं रंगे-हिना, आहंगे-ग़ज़ल,

अन्दाज़े-सुख़न बन जाऊँगा,

रुख़्सारे-उरूसे-नौ की तरह,

हर आँचल से छन जाऊँगा,

जाड़ों की हवाएँ दामन में..

जब फ़स्ले-ख़िज़ाँ को लाएँगी,

रहरौ के जवाँ क़दमों के तले,

सूखे हुए पत्तों से मेरे..

हँसने की सदाएँ आएँगी..

और सारा ज़माना देखेगा..

हर कि़स्सा मेरा अफ़साना है..

हर आशिक़ है ’सरदार" यहाँ,

हर माशूका ’सुलताना’ है

--

मैं एक गुरेज़ाँ लम्हा

अय्याम के अफ़्सूँ-ख़ाने में

मै एक तड़पता क़तरा हूँ

मसरूफ़े-सफ़र जो रह्ता है

माज़ी की सुराही के दिल से

मुस्तक़बिल के पैमाने में

मै सोता हूँ और जागता हूँ

और जाग के फिर सो जाता हूँ

सदियों का पुराना खेल हूँ मैं

मैं मर के अमर हो जाता हूँ

---

नुक़्तो-सदा= अभिव्यक्ति, दहन=मुँह, फ़स्ले-ख़िज़ां= पतझड़ की फ़सल , मसरूफ़े-सफ़र= यात्रा में व्यस्त, सुलताना=कवि की पत्नी

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अली सरदार जाफरी साहेब मेरे पसंदीदा शायरों में से एक है उसकी शायद एक वजह ये भी है कि जाफरी साहब मेरे शहर बलरामपुर की पैदाइश है और उनके परिवार के लोगों से मुझे मिलने औऱ उनके बारे में जानने समझने का मौका मिला...ये उनकी रूहानी शख्सियत का ही असर रहा कि इस शहर में आज भी उर्दू शायरी की एक भरी पूरी परपंरा मौजूद है.. आज भी जब मैं अपने शहर जाता हूं तो एक खुशनुमा एहसास से भर जाता हूं.. बेकल उत्साही औऱ बाबू हरिशंकर 'खिज्र' जैसे नाम जो किसी पहचान के मोहताज नहीं (बाबू हरिशंकर जी पेशे से अध्यापक हैं औऱ रिटायरमेंट के बाद लंबे वक्त तक उर्दू और अंग्रेजी के ट्यूशन देते रहे, ) स्कूल के दिनों में मुझे भी उनका शिष्य बनने का मौका मिला.. और शायद वही वो वक्त था जब मुझमें हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी की महान साहित्य परंपरा को जानने कि दिलचस्पी पैदा हुई। बाद के दिनों में अली सरदार जाफरी साहेब के भतीजे अब्बास जाफरी साहेब ने मुझे कॉलेज में पढ़ाया.. फैज अहमद फैज की एक नज्म जो मैंने उनके सुनी थी और आज तक मुझे याद है..दरअसल हम कौमी एकता पर बात कर रहे थे और वो हमें नजीर बनारसी और फैज अहमद फैज की रचनाओं के जरिए ये बताने की कोशिश कर रहे थे कि जिस वक्त हिंदुस्तान का इतिहास करवट ले रहा था उस दौर में भी तमाम लोग इंसानी तहजीब औऱ सुलहकुल को मुसलसल बनाए रखने के लिए शब्दों की लड़ाई लड़ रहे थे और अपनी नाराजगी का इजहार कर रहे थे ......


-फैज अहमद फैज की रचना---


सच कह दूं एक बराहमिन,
गर तू बुरा ना माने,
तेरे सनम कदों के,
बुत हो गए पुराने,
आपस में बैर रखना,
तूने बुतों से सीखा,
जंगे-जदल सिखाया,
वाइज़ को भी ख़ुदा ने...


और नज़ीर बनारसी का वो शेर जो उन्होंने दंगों की विभीषिका से निपटने के दौर में कहा था..


हिंदुओं को तो यकीं है कि मुसलमान है नज़ीर
कुछ मुसलमां है जिन्हें शक है कि हिंदू तो नहीं.


जाफरी साहेब की एक पीढ़ी तो मुंबई जा कर बस गई मगर अब भी उनके परिवार में कई लोग ऐसे हैं जिनका उर्दू शायरी से नाता उतना ही गहरा है..जाफरी साहेब की इस परंपरा में एक नाम बेकल उत्साही का भी है जो एक दौर में बेहद मशूहर हुए और राज्यसभा के सांसद भी रहे.. लेकिन आज भी जब अपने शहर मे एक आम आदमी की तरह उन्हें रिक्शे पर बैठकर बाजार जाते देखता हूं तो बेहद फक्र महसूस होता है कि जिंदगी की तल्ख सच्चाईयों के बीच दूसरों के दुख दर्द और जज्बात को जुबां देने वाले इन शानदार लोगों को करीब से देखने और जानने का मौका मिला.. एक डॉक्यूमेंट्री बनाने के दौरान मैंने उनके साथ कुछ वक्त गुजारा तो पता चला कि बाजारीकरण के इस दौर में देश में भले ही उनकी कद्र ना हो रही हो पर दुनियाभर के तमाम विश्वविद्यालयों में उनके काम और शख्सियत पर शोध किए जा रहे हैं.. बेकल साहेब का एक शेर जो मुझे बेहद पसंद है..


अब ना गेंहू ना धान बोते हैं अपनी किस्मत किसान बोते हैं
फसल तहसील काट लेती है, हम मुसलसल लगान बोते हैं..


अजीब लगता है ये देखकर कि दुनिया इतनी बदल चुकी है.. फिर भी अपनी विरासत को सहेजने का सलीका और सोच हम लोगों में अबतक पैदा नहीं हो पायी..
आपका हमसफर,
दीपक नरेश

रविवार, 4 मई 2008

स्वागत है आपका

ये हमारे लिए फक्र की बात है कि वन्यजीवन पर शोध करने वाले देश के एक नामचीन रिसर्चर फैयाज ए खुदसर हमारे ब्लॉग से जुड़ गए हैं।.. फैयाज भाई मेरे पुराने दोस्त हैं.. अपनी जिंदगी के तमाम अहम साल उन्होंने जंगल की दुनिया को बचाने की मुहिम में झोंक दिए,,. मुझे हमेशा इस बात का फक्र रहा है कि फैयाज भाई जैसा शख्स मेरा दोस्त है...बेहद नेकदिल इंसान हैं.. मध्य प्रदेश के गुना में टाइगर को बचाने की मुहिम का एक बड़ा हिस्सा रहे है.. और वर्तमान में दिल्ली के बायो डाइवर्सिटी पार्क में एक सीनियर पद पर तैनात है..दिल्ली में पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में उन्ही के सानिध्य में मुझे जंगल की दुनिया पर काम करने वाले तमाम नामचीन लोगों से मिलने और उन्हें जानने का मौका मिला.. डॉक्टर रघु चुंडावत के घर पर हुई परिचर्चा का मैं हिस्सा बन पाया और वन्यजीवन की तमाम अहम जानकारियां मेरे हिस्से आईं. डॉक्टर रघु चुंडावत का देश-विदेश में काफी नाम है और वाइल्ड लाइफ पर उनके काम पर बीबीसी डॉक्यूमेंट्री बना चुका है....डॉक्टर नीता शाह से मुलाकात भी फैयाज भाई ने ही कराई थी.. जो बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी से जुड़ी हैं और देश में गिद्धों की कम होती तादात पर काफी अहम काम कर रही हैं। जंगल को बचाने की मुहिम से जुड़े फैयाज भाई की शख्सियत के कई पहलू ऐसे भी हैं जिनके बारे में मैं चाहूंगा वो खुद ही बताएं तो बेहतर रहेगा.. उम्मीद है उनके लेख जंगल की दुनिया के बारे में हमारे सोचने समझने का दायरा बढ़ाएंगे...
आपका हमसफर
दीपक नरेश

ब्लॉग पर लिखने का तरीका

कुछ लोगों ने व्यक्तिगत तौर पर पूछा है कि उन्हें ये नहीं पता कि ब्लॉग पर लिखा कैसे जाए..तो दोस्तों आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि ब्लॉग पर प्रकाशित करने के लिए आप अपने लेख और रचनाएं nareshdeepak@gmail.com पर मेल कर सकते हैं.. आपकी प्रविष्ट को ब्लॉग पर तुरंत जगह दी जाएगी..
आपका हमसफर
दीपक नरेश

आपका स्वागत है


दोस्तों ब्लॉग के लेआउट में कुछ तब्दीलियां की गई हैं.. कुछ मित्रों की सलाह पर ये फेरबदल किए गए हैं. लखनऊ से मनीष भाई और पूना से आशुतोष ने ये सलाह दी ,उम्मीद है ये बदलाव आप लोगों को पसंद आएगा..जरूरी तब्दीलियों के लिए आपके मशविरे का हमेशा इंतजार रहेगा...कुछ पुराने मित्रों को ब्लॉग पर सीधे लिखने के अधिकार दे दिए गए हैं. दिल्ली में गिरिजेश भाई. परमेंद्र जी, पंकज भगत जो आज से ही ब्लॉग से जुड़ें है (सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं.. और काफी जेहादी तेवर वाले मगर नेकदिल इंसान है।).. डॉक्टर ज्ञानेंद्र मौलाना आजाद डेंटल हॉस्पिटल दिल्ली में डॉक्टर हैं औऱ अपने विषय की जानकारियों के साथ थोड़े वक्त में हमारे साथ जुड़ जाएंगे...डॉक्टर विवेक सर गंगाराम अस्पताल में प्लास्टिक सर्जन हैं.. पुराने दोस्त है. उनको भी न्योता भेजा गया है मगर अबतक उनका जवाब नहीं आया है.. उम्मीद है वो भी जल्द ही इस महफिल को रोशन करने आ पहुंचेंगे....ये सभी लोग अपनी सुविधानुसार ब्लॉग पर परिचर्चा और जरूरी जानकारियों, सूचनाओं की बौछार करते रहेंगे.. गिरिजेश भाई की कहानी का बेसब्री से इंतजार है.. लखनऊ से राहुल भाई ने खबर दी है कि वो इंटर कॉलेज में अध्यापक हो गए हैं और चंद रोज में नवाबंगज उन्नाव के एक इंटर कॉलेज मे ज्वाइन करने वाले हैं... राहुल भाई के बारे में तो आप जानते ही हैं.. युवा पीढ़ी के जोरदार कवि हैं इनका फलसफा है कि दुनिया में खुशनसीब वही है जिसे मनमाफिक नौकरी और मनपसंद बीवी मिल जाए..राहुल भाई मनमाफिक नौकरी मिलने पर आप को ढेरों बधाइयां.. उम्मीद है मनपसंद जीवनसंगिनी भी जल्दी ही आपकी जिंदगी में लैंड करेगी......ये सभी मित्रगण अपने लेखों, कविताओं के साथ राजा बनारस की महफिल को गुलजार करते रहेंगे. बस आप यूं ही अपनी शुभकामनाओं का गुलदस्ता हमें भेजते रहिए...
आपका हमसफर
दीपक नरेश

शुक्रवार, 2 मई 2008

असली चेहरा, नकली लोग

हम जानते हैं उनकी मक्कारी का मिजाज
उनकी रग-रग से वाकिफ हैं हम..
वो कमजोर और कायर हैं...
डरपोक है दिमाग है उनका..
इसलिए हर दिमागदार से
खौफ खाते हैं वो..
उनकी कोशिशें उनकी हताशा का सबूत है..
उनकी चालों में बू है..
क्योंकि सामने से भिड़ने का साहस वो नहीं रखते
असलियत के आइने में अपनी शक्ल नहीं देख सकते..
(क्योंकि सच से रूबरू होना आसान नहीं होता)
......
बिखरे हैं हमारे आस--पास ऐसे ढेरों चेहरे..
-----
जिनकी आत्मा बेईमानी और मक्कारी की मोहताज बन चुकी है
...
उनको माफ करना ऊपरवाले..
क्योंकि उनकी मौजूदगी ऐसी ही है..
मानो किसी साफ-सुथरी कालोनी के पिछवाड़े
फैले हुए मलबे के ढेर.....

गुरुवार, 1 मई 2008

यही सच है

भाई प्रमोद चौहान कवि तो नहीं... लेकिन कवि वाली तल्खी जरूर रखते हैं..इनकी शायद पहली कविता मुझे मिली है मुझे अच्छी लगी...उम्मीद है आप को भी पसंद आएगी...

जब कोई कुकहाते,
लार टपकाते,
सामने से चला आए
तो समझदार को चाहिए कि
वो डर जाए
और इस आंशका से भर जाए
कि कहीं वो उससे
प्रतिस्पर्धा ना कर जाए

मंगलवार, 22 अप्रैल 2008

कुछ हाइकू .........

लखनऊ से भाई राहुल उपाध्याय ने ये हाईकू छंद भेजे हैं....जापानी छंद के तौर पर हिंदी में बेहद लोकप्रिय इस शैली की कविताओं का अपना एक अलग मिजाज होता है.. तो हाजिर है चंद अल्फाजों में गहरी से गहरी बात बयां करती राहुल भाई की ये रचनाएं...

मेरे भाई हो
बिल्कुल अलग
मुझसे दूर
----
नभ के तारे
हैं कितने प्यारे
लेकिन दूर
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अंतर्मन
सुंदर पीड़ा से
खिल आया है
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चिडिया उड़ी
उड़कर आई है
धरती पर
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शब्द पार
अर्थ कई मिले हैं
तुम जैसे ही
-------
मेरे बाद तू
किसके बाद कौन
छोडो इसको

सोमवार, 21 अप्रैल 2008

कोउ 'नृप' होउ हमहि का हानी

भाई नीरज पांडे की कलम से....

नवाब अब रहे नहीं। नाममात्र के भी नहीं (नेपाल से राजशाही की विदाई हो रही है), लेकिन नवाबी जारी है। काम के नहीं तो नाम के सही। मिसाल के तौर पर हमारे मित्र दीपक 'नरेश' उर्फ़ 'राजा' बनारस। इनके स्वघोषित और आत्मविज्ञापित राजशाही पर सचमुच के राजा लोग चिढ़ गए। लाजिमी है, ऐसे राजाओं का न तो प्रचंड जैसे माओवादी कुछ बिगाड़ सकते हैं, न सरदार पटेल जैसी लौह क्षमता इनकी रियासत विलीन कर पाई (रियासत रहे तब तो, पहले ही कह दिया नाम के राजा हैं)। सो ‘forced (बलात) -retired’
(गणतंत्र दिवस की कमेंट्री की तरह हिंदी-अंग्रेजी दोनों जरूरी है) राजा लोग हताशा, निराशा और ईर्ष्या के वायरल से ग्रस्त होकर एक दिन दीपक ‘नरेश’ को घेर लिए। पकड़ के ले गए डॉमिनिक रिपब्लिक ऑफ कांगो। अफ्रीका के घने जंगलों में। ‘दीपक को काटो तो खून नहीं।‘ (मैं नहीं कह रहा...वर्षा वन में फैले मलेरिया के मच्छरों ने कहा, क्योंकि दीपक का खून डर के मारे सूख चुका था।) खैर वहां सच के राजाओं के मध्य दीपक ‘नरेश’ की पेशी हुई। सवाल- क्या नाम है? जवाब- दीपक ‘
नरेश’ उर्फ राजा ‘बनारस’। सवाल- तुम्हारे साथ कैसा सलूक किया जाए? जवाब-जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है। सवाल- अच्छा ठीक है, पहले हिंदुस्तान के तीन राजाओं के नाम बताओ। जवाब- राजा भैया...खामोश (दीपक को बीच में ही रोक दिया गया)...ये राजा भैया कहां का राजा है? जवाब- जी वो..जी सवाल- क्या जी..जी लगा रखी है...हमने सुना कि तुम्हारे यहां बड़ा शौक है लोगों को राजा कहलाने का...राजनीति में तो जहां-तहां के राजा हैं ही...फिल्मों में भी बादशाह और किंग हैं...और सुना कि एक शहर में अचानक 11 राजा पैदा हो गए हैं...(राजाओं का ताज़ा गुस्सा प्रीटी जिंटा के ‘किंग्स’ एलेवन से है )...? असली राजाओं से घिरे दीपक ‘
नरेश’ की सिट्टी-पिट्टी गुम है। इतने में कहीं से जंगल का राजा दहाड़ते हुए निकल आता है। दीपक भाई चौंक कर जाग जाते हैं...ऑफिस के लिए देर हो रही है...कान से फोन और सीने से बिटिया को चिपकाए अखबार की सुर्खियों पर नज़र डालते हैं- ‘कर्नाटक में बीजेपी और देवगौड़ा फिर हाथ मिलाने को तैयार’...’अब गरीबों को एक रुपये किलो मिलेगा चावल’...’विदर्भ में कर्ज से दबे एक और किसान की आत्महत्या’....गाड़ी में बैठे तो रेडियो पर गलती से पता नहीं कौन सा पुराना स्टेशन ट्यून हो गया। तुलसीदास की चौपाई चल रही है... कोउ ‘नृप’ होउ हमहि का हानी।

होना.. ना होना

होना...
एक सीमा रेखा है..
असीमित के खुले विस्तार में
दुख की नदी के
दोनों पाटों पर भव्य प्रासाद
ना होने को..
संकुचित कर देते हैं....
उपस्थित की भीतियों से
शनै शनै टकराती हैं..
संभाव्य की लहरें...
सीमा रेखा होकर भी
अर्थहीन है
ना होना एक अर्थ है
शब्द, समर, शेष से परे,......

कोलाज

ट्रेन की गति में एक लय है
रोटी की खुशबू है,
संघर्ष के पसीने की चमक
सूरज भी सलामी देता है..
बेतहाशा भाग रही रेलगाड़ियों को
पटरियों पर दौड़ रही चमकीली किरनें
ट्रेन के आगे-आगे..
.....
भीख मांगते बच्चे
सच का कोई कोना
जिजीविषा की रोशनी मे नहाया...
बूढ़ी औरत किसी कोने मे दुबकी
मरने के खौफ से
भीड़ से बचती..
कौन कहता है..
जीवन सुरक्षित है धऱती पर,
जबकि मौत भी आहट के बगैर
बेखौफ चल रही है साथ-साथ
गली-मोड़-नुक्कड़ से
घर की देहरी तक...
याद ना करो कि मुसलमान हो तुम
गर हिंदुओं के मोहल्ले से गुजरो..
मस्जिद के सामने भजन के शोर से
जाग सकते हैं दंगे....
क्योंकि जीवन नहीं है सुरक्षित धरती पर...

सुनामी पर कुछ पढ़ते हुए

हमारे समय में
कुछ अनकही बातें..
दिमाग के किसी कोने में..
करवट लेती
उनकी आहट खामोश नहीं..
एक अनचीन्हें भय का साया
हमारे समय में..
क्या शब्द व्यक्त कर पाएंगे..
जब खामोश धरती के सीने पर
गरज उठा था..
समुद्र के आतंक का शोर..
प्रशांतता की मर्यादा रेखा के पार
मौत की लहरों में ..
तबाही का मंजर...
हमारे समय में..
एक खामोश सिसकी....
रिश्ते जिनको नाम नहीं दे सकते,
मानवता की दुहाई भर
हमारी आत्माओं को कचोटते कुछ प्रश्न
जिम्मेदार कौन? जिम्मेदार कौन ?

आतंकवाद

वो बेकसूरों का खून बहाते हैं
और निर्दोष चेहरों पर
दहशत की तस्वीर टांगते हैं,..
उनके कारनामे सारी दुनिया के मुंह पर तमाचा हैं..
औऱ टुकड़ों-टुकड़ों में बिखरी हमारी कोशिशें
जीत उनकी हमारी हताशा है..
हम सीमाओं के दायरे में
अपने पराये का भेद करते हैं
औऱ वो जाति नस्ल भूल
हमारे बच्चों की तकदीर खराब करते हैं...
हमारी जंग मे स्वार्थ है
खुद को बचा लें..
मगर पड़ोसी के घर की आग से वास्ता नहीं रखते
औऱ वो आतंक और मातम की सौगात..
हर देश, हर बस्ती और हर कबीले में बांटते हैं
हम खो रहे हैं मानवता से रिश्ता
औऱ लड़ रहे हैं एक छद्म लड़ाई
हमारी लड़ाई में दुश्मन ताकतवर
ही नहीं अदृश्य है
वो मिलता नहीं, मगर हर कहीं है
आतंकवाद का साया अब अनजाना नहीं
उसकी दहशत हमारी रूह के करीब है

रविवार, 20 अप्रैल 2008

कब आएगा ये वक्त.....

परमेंद्र मोहन जी हमारी जमात के उन लोगों में हैं जिनकी शराफत की मिसाल देने में कोई भी नहीं डगमगाएगा...उनकी तारीफ के लिए सही अल्फाज ढूंढने के लिए आप सब से थोड़ी वक्त की मोहलत मांग रहा हूं..उम्मीद है जल्द ही उनके माकूल कुछ लिख सकूंगा.. फिलहाल उनकी कलम से निकले कुछ मोती पेश-ए-खिदमत है...

कुछ लोग दोस्तों से कतराते हैं तो कुछ दोस्त बनाते हैं, हम दूसरी कैटेगरी वाले हैं...यही वजह है कि दो फक्कड़ों की दोस्ती हो गई। अब दीपक जी की तमन्ना थी कि मैं भी कुछ लिखूं पर वक्त नहीं मिल रहा था...वजह ये थी कि करियर और परिवार के साथ मैं अपने एक और दोस्त के पास अचानक हुई वक्त की तंगी से कुछ परेशान था...तो राजा बनारस जी की खिदमत में मेरी पहली तुकबंदी की थीम है....वक्त

उस दिन फिर मैंने उनसे वक्त मांगा और फिर दिल हुआ बेज़ार,
उन्होंने कहा.. फिर कभी, और लंबा हुआ इंतजार..
अब करता हूं अफसोस कि क्यों उनसे मांगा वक्त,
बड़े बेवक्त पर इस बार भी वो कर गए इनकार...


मेरे लिए अब उनके पास वाकई नहीं है वक्त,
वक्त ने ही तो बदल दिया उनका पुराना वक्त,
पर मानता नहीं है मेरा दिल ये कमबख्त,
और मांग बैठता है उनसे अब भी थोड़ा वक्त...

गर बस चले इस दिल का तो ये थाम लेता वक्त,
एक वक्त था, जब उनके पास था मेरे लिए भी वक्त..
हर शाम का था साथ और कट जाता था वो वक्त
अब यादों में ही सिमट गया है गुजरा वक्त...

करता हूं वक्त से ये इल्तिजा कि मेरा भी आए वक्त,
और लौटा दे वही दोस्त, कभी वो भी आए वक्त...

जिंदगीनामा

कातिल ने बिठाए थे सुरागों पर कड़े पहरे,
साजिश में फंस गए थे बेगुनाह कई चेहरे,
हादसों में तब्दील हुई अपराध की तस्वीर,
सफेदपोश चालों में फंसी बेगुनाह की तकदीर,
नेता बने अपराधी या अपराधियों की सरकार,
राजनीति के दरबार में है पुलिस भी लाचार,
हुकुमत नहीं सोई कहे कागज के परिंदे,
शरीफों को हुई जेल हैं बेखौफ दरिदे,
किसी की बेटी लुटी है किसी का घरबार,
अपराध से फलफूल रहा खबरों का बाजार,
दिल और दिमाग दोनों पर भय का अजब ये जाल,
हर मोड़ पर मुमकिन है मिल जाए एक सवाल,
जो घर छोड़ के निकलो तो हथियार साथ लो,
नामालूम कब किधर हो जाए कोई बवाल,
जीना है जरूरी लेकिन रोटी बड़ी दिक्कत,
फल-फूल रहा हर कहीं नफरत का कारोबार,
अमनो सुकूं की बात की तो जान से गए,
गांधी को हमसे बिछड़े कई साल हो गए...

ये जो है जिंदगी

वक्त के समंदर में तकदीर की नाव,
कहीं पड़े भारी कहीं गलत लगा दांव,
हालात बेकाबू हुए तो खामोश रहे हम,
कारवां की धूल में भी खूब चले पांव,
जब मिली शाहकारी तो बेफिक्र हो गए,
अंदाजे जिंदगी में कई रंग घुल गए,
कौन जाने कब कहां मिल जाए ये खुदा,
हर पाप और पुन्य को सजदा किए गए,
वक्त जो कहता, मुमकिन ना हो तुम्हे मंजूर,
माकूल हालात ने भी फासले दिए,
तंग तकदीरों से भी दिल खोल के मिलो,
हर इम्तेहान जिंदगी में देते सबक नए,
जो मिल जाए हम यूं ही किसी राह मोड़ पर,
मुस्कराहटें और दो बाहों के दायरे,

रविवार, 6 अप्रैल 2008

अपने कभी नहीं बिछुड़ते..

प्रोफेसर बच्चन सिंह नहीं रहे....हिंदी का विद्यार्थी होने के नाते एक लंबे वक्त तक उनको पढ़ने का सिलसिला चलता रहा..वैसे ये पढ़ाई अकादमिक रही लेकिन प्रोफेसर साहेब से एक नाता उस वक्त जुड़ा जब उनके बेटे प्रोफेसर सुरेंद्र सिंह मेरी पीएचडी के फाइनल वाइवा के लिए लखनऊ यूनिवर्सिटी आए.. उस वक्त तक मैं मीडिया में पूरी तरह से खप चुका था या यूं कहें कि मीडिया में मेरी लैंडिंग कंपलीट हो चुकी थी..एक लंबी बातचीत का दौर और सवालों की एक लंबी फेहरिस्त.... मसलन हिंदी में इस स्तर तक पढ़ाई और फिर मीडिया में जाना....उनके ज्यादातर सवालों के लिए मैंने कोई ना कोई जवाब जरूर ढूंढा... कुछ जूझकर तो कुछ बूझकर.. कुछ तो बेहद बनावटी.....महज खुद की खाल को बचाने के लिए (आखिर इतनी मेहनत के बाद पीएचडी की डिग्री जो हासिल करनी थी) लेकिन सवालों की इस खेप में एक सवाल ऐसा भी था जिसका जवाब मैं आजतक नहीं ढूंढ पाया.. जाते जाते उन्होंने पूछा था कि क्या इस पढ़ाई का मैं मीडिया में कोई इस्तेमाल कर पाउंगा.. ये सवाल मेरे जेहन में आज भी टंगा है.. सच बताऊं मैं खुद नहीं जानता लेकिन इतना तय था कि जीने की जद्दोजहद और किताबी कसरतों में तालमेल बिठाना हकीकत में काफी टेढ़ी खीर है.. ऐसे में प्रोफेसर साहब की एक बात मुझे रह-रह कर जरूर याद आती है कि... जहां भी रहो अपनी बेफिक्री और जिंदादिली का भरपूर इस्तेमाल करो क्योंकि मेरे पिताजी ने मुझे यही विरासत सौंपी है और मैं हमेशा से इसे अपने छात्रों के साथ बांटता आया हूं.....साहित्य की उसी परपंरा के स्नेह स्पर्श का एक सुखद एहसास... खुशकिस्मती से जो मेरे हिस्से आया ...साहित्य की आत्मा को एक नया संस्कार देने वाले प्रोफेसर बच्चन सिंह को भावभीनी श्रद्धाजंलि....

ये इंतजाम तो सॉलिड है रे बाबा..

आज अखबार में एक खबर पढ़ी बिहार में दवाइयों की भी जाति तय कर दी गई है यानि फला जांति का डॉक्टर एक खास कंपनी की दवा ही लिखेगा..इतना ही नहीं उस कंपनी से जुड़े ज्यादातर डॉक्टर और कारोबारी भी उसी जाति के हैं..मुझे याद आ रहा है कि टॉलकॉट परसंस ने कहीं लिखा था कि कास्ट इज द सेकेंड लाइन ऑफ डिफेंस यानि देसी अंदाज में कहें तो बरही से लेकर तेरहवीं तक रिश्तेदारी का धरम निभाने की कवायद और पहचान के संकट से निपटने का सॉलिड इंतजाम.... लेकिन जाति बिरादरी का इस तरीके का इंतजाम भी मुमकिन हो जाएगा ये तो परसंस साहेब ने भी नहीं सोचा होगा..लेकिन रवीश भाई अब तो ये सोचने का वक्त है कि दवाओं की जाति तय करने से कितने फायदे हो जाएंगे...भई दूसरे जाति की दवाई खाकर मरने से तो बेहतर है अपनी जाति की दवा खाकर ही मरा जाए वैसे भी दवा लिखने वाला डॉक्टर अपनी बिरादरी का होगा तो खाने तो आएगा ही अब चाहे बरही हो या तेरहवीं...दूसरी बात अगर गलती से दवा किसी दूसरी जाति के मरीज ने खाई और वो मर गया तो डॉक्टर इस इल्जाम में फंस सकता है कि दूसरी जाति का होने के चलते उसने मरीज को गलत दवा दे दी... ऐसें में अगर हंगामा होगा तो दो जातियों के लोगों के बीच झड़प हो सकती है....दंगे आगजनी तोड़फोड़ कुछ भी मुमकिन है..दूसरे शब्दों में कहें टीवी चैनलों के लिए भरपूर मसाला...एक बात और रवीश भाई इस व्यवस्था के फायदे तो मरने के बाद भी मिलेंगे मसलन....अगर स्वर्गलोक में कोटा एलाटमेंट की बात हुई तो वहां भी दवाइयों को क्राइटेरिया बनाया जा सकेगा.. यानी एक ही किस्म की दवा खाकर मरे लोगों की एक बिरादरी होगी.. यहां भले ही दूसरी जाति के हों लेकिन वहां तो सब एक दवा के दागे होंगे...भई वाह..समाज विज्ञानियों के लिए मगजमारी का पूरा मसाला जुटा दिया है रवीश भाई ने.. मैं तो बस यही कहूंगा कि रवीश भाई एक कोलंबस था जिसने अमरीका खोजा था और दूसरे आप हो जिसने ढूंढ निकाले समाज में छिपे एक ऐसे रहस्य को जिसे समझने की कवायद काफी दिलचस्प होगी....बधाई

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2008

कसूर किसका ?

राहुल भाई की लेखनी से....

दोस्ती निभती नहीं

सच कहा दोस्ती निभती नहीं

निभे भी कैसे ?

तुम्हारे सतत् आघात मैं सह नहीं पाता

अपनी पीड़ा को हंसकर छुपा नहीं पाता

आत्मीयता के विस्तार में सीमा रेखाएं खीच नहीं पाता

दोस्ती के फासले जान नहीं पाता

अपनी परम अभिव्यक्ति रोक नहीं पाता

दोस्ती निभे भी कैसे ?

जब मेरी विनम्रता

तुम्हारे अहम् की पोषक बन जाए

तुम्हारी हँसी मेरे ह्र्दय पर कटाक्ष कर जाए

मेरा प्यार तुम्हारे गर्व का हास बन जाए

दोस्ती निभे भी कैसे ?

जब मैं झूठ तुमसे कह नहीं पाता

तुम्हारा पतन सह नहीं पाता

वह जाल जिसमें आदमी फंसते हैं

मैं बुन नहीं पाता...........

बुधवार, 19 मार्च 2008

ये जो है जिंदगी..

राहुल भाई का परिचय दोस्तों के लिए,....हमारे कॉलेज के जमाने के संगी, कविताओं से इनका नाता मियां बीवी वाला है.. ये अपनी कविताओं को दुलराते हैं..उससे लड़ते हैं झगड़ते हैं और कई बार ये जद्दोजहद इनकी कविताओं को एक खास तेवर दे जाती है..काफी जिंदादिल इंसान है... पेश हैं इनकी रुमानी जिंदगी से चुराए गए कुछ अल्फाज....

कुछ इस कदर उदास हो चली है जिंदगी

मिले कोई भी ख़ुशी वो गुदगुदी बनती नहीं

तुम गए क्या जिंदगी से नेह जैसे मिट गया

एक लम्बी दास्तां जो कभी मिटती नहीं

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2008

गिरिजेश भाई की 'बेतुक'बंदियां

1.
गुलों को रहता है इंतज़ार, मौसम-ए-बहार का
हम तो बेहया हैं, हर मौसम में खिलते हैं।।
2.
दर्द-ए-ग़म को बहुत पी चुका
अब इस ज़हर को पी लेने दो।
सिसक-सिसक कर बहुत जी चुका
अब सुकून से मर लेने दो।।
पीते दूध जला मुंह मेरा
छाछ फूंककर पी लेने दो।
खुली आंखों ठोकर ही खाई
ख्वाबों दो डग चल लेने दो।।
दर्द-ए-ग़म....
थोड़ा रूमानी हो जाएं...
जज़्बा-ए-इश्क़ का, जब भी उनसे इज़हार किया
जवाब में उन्होंने हरदम ही इनकार किया।।
ख़ता थी दिल की मेरे, क्यूं उनका ग़ुलाम हुआ
सज़ा में दिल का मेरे, रोज़ क़त्लेआम हुआ।
सज़ा कम करने का जब भी उनसे इसरार किया
जवाब में उन्होंने हरदम ही इनकार किया।।

भाई गिरिजेश मिश्र की कलम से....

मेरे तन में सिहरन,
और मेरा मन उदास है
उस मेमने की तरह,
भेड़िया, जिसके आस-पास है...
बड़ा डरा हुआ, सहमा सा
उसने सुनी है किसी मां की चीख
और, देखी है
संगीनों के साए में घिरी ज़िदगी,
मांगती, कुछ सांसों की भीख
उसी पल से,
बड़ा उदास है....
समझाता हूं नादां को,
डाल ले इन सबकी आदत..
तभी कर पाएगा
खुद की हिफाज़त
मगर, ये मानता नहीं..
शायद जब तक
ये हालात से हारता नहीं
तब तक इसके मन में
थोड़ी सी आस है..

रविवार, 17 फ़रवरी 2008

अरुण माहेश्वरी की किताब- एक कैदी की खुली दुनिया- से

पाब्लो नेरुदा की प्रेम कविताएं दुनियाभर में सराही जाती है। बेअंदाज रंगीनमिजाजी और बेपरवाह शख्सियत के मालिक नेरूदा ने अपनी जिंदगी में मुहब्बत की कई इबारतें लिखीं। नेरूदा की अधिकांश कविताओं में एक गहरा रूहानी एहसास है जो दिलो-दिमाग की तमाम सरहदों को खारिज करता है। नेरूदा की चंद पंक्तियां जो मुझे बेहद पसंद हैं..
कितना संक्षिप्त है प्यार,
और..
भूलने का अरसा..
कितना लंबा.....................

शनिवार, 16 फ़रवरी 2008

एक कवि के शब्द

एक जहर है चंदन वन में,

एक जहर मेरे मन में,

मैं दोनों के बीच खड़ा हूं,

जीने की लाचारी में..

बहुत देखने की कोशिश की,

दिखी ना कोई सूरत पूरी,

मैंने तो बस वही जिया,

जो था मेरे लिए जरूरी,

कोई कुछ भी अर्थ लगाए,

मेरी समझ सिर्फ यह आए,

हर सूरज सूली चढ़ता है,

रोज किसी अंधियारे में,

पता नहीं हम कितना रोए,

हंसने की तैयारी में.....