रविवार, 12 अगस्त 2007

अनुभूति

तुम्हारी चपल मुस्कान,
याकि गांव-पनघट जाती हुई
पनिहारिनों के गान..
मेरे हृदय पर ये चोट
जैसे भोर भए पखेरुओं के
गूंज आए शोर..
लिखने से भी पहले बह गई
कविता कोई अजान..
चैतमासी दोपहर में
अलमस्त धूसर गांव की पगडंडियों पर
दौड़-दौड़ जाती..
तुम्हारी निर्भय चपल मुस्कान
मेरे वृहत्तर सुख का भान..
किसी रासराली चैत की
बंजारन ठुनकती शाम......

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…
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