रविवार, 15 जून 2008

उफ ये 'टेरेफिक' सिस्टम...




दिल्ली का एक ही दर्द है..यहां पर हर सेवा सर्विस है और उस सर्विस की कीमत वसूलने में कोई मुरव्वत नहीं बरती जाती...फिर चाहे वो लोक सेवा हो या जन सेवा...हालांकि उसूलों को किताबी बातें मानने वालों को ये बेतुकी लग सकती है मगर जिसके लिए जिंदगी जद्दोजहद से कम नहीं उनके लिए ये कीमत वसूली एक सजा बन जाती है...मध्यमवर्ग के लिए तो ऐसी दुश्वारियों की एक लंबी चौड़ी फेहरिस्त ही बनाई जा सकती है.. अभी का एक वाकया बताता हूं आपको.. एक आदमी अपने परिवार के साथ मारुति 800 में शायद कनॉट प्लेस घूमने आया था....कार नई थी और उसमें एक भरा पूरा परिवार मौजूद था..जैसा कि हम विज्ञापनों की होर्डिंग्स में देखते हैं...विज्ञापनों की रंगीन दुनिया से झांक रहे सपनों की तरह इस कार में बैठे दो मासूम भी अपने बाहर की दुनिया को बड़े गौर से निहार रहे थे.. सुख उनके चेहरे से टपक रहा था औऱ रेड लाइट पर उनके ठीक पीछे अपनी कार में मौजूद मैं उनकी मासूमियत को देख रहा था... ट्रैंफिक सरकना चालू हुआ तो मेरी कार उनके पीछे थी..लेकिन एक जगह उनको शायद दिशा भ्रम हुआ कि उनको जाना किधर है ... ये मंटो ब्रिज के पास का वाकया है..उन्होंने अपनी कार रोकी और बैक करके पास में जा रहे एक साइकिल वाले से रास्ते के बारे में पूछना शुरु ही किया था..कि अचानक एक ट्रैफिक सिपाही वाला कूद कर उनके सामने आ खड़ा हुआ.. उसने बिना कुछ पूछे रसीद काटी और कार चालक के हाथ में थमा दी..कार चालक महोदय लाख कहते रहे कि उन्होंने कार बैक की थी रास्ता पूछने के लिए ..लेकिन ट्रैफिक पुलिस का वो कांस्टेबल मानने को तैयार नहीं दिखाई दे रहा था..मैं उनकी बातचीत का नतीजा क्या रहा ये तो नहीं जान पाया लेकिन एक बात जो मुझे समझ नहीं आई कि ट्रैफिक सिपाही को ऐसी क्या जल्दी थी कि बातचीत किए बिना या जरूरी कारण जाने बिना उसने चालान की पर्ची काटी.. दूसरी बात उनके ऊपर जिम्मेदारी है ट्रैफिक व्यवस्था दुरुस्त रखने की और वो ये काम एक जनसेवा के तहत करते हैं जिसके लिए उन्हें पगार दी जाती है औऱ उस पगार का पैसा सरकार लोगों से टैक्स के नाम पर वसूलती है.. ऐसे में चालान काटने के लिए ही ड्यूटी करना कौन सी कानून व्यवस्था है..अगर उसे लगता था कि उस आदमी ने ट्रैफिक नियम तोड़ा है तो उसे साइड में रोककर पूछताछ करना चाहिए था फिर चालान काटना शायद मुनासिब होता लेकिन बिना बात चालान काटने की कार्रवाई तो किसी तरह से वाजिब नहीं कही ता सकती ..क्या ट्रैफिक सिपाही वसूली के लिए ही ड्यूटी कर रहे हैं और अगर ऐसा हो रहा है तो ये बेहद खराब बात है...मेरा मानना है आम आदमी की कमर महंगाई की मार से पहले से ही टूटी हुई है ऐसे में उसे हर मोड़ और हर चौराहे पर लूटने का .ये तथाकथित कानूनी इंतजाम ठीक नहीं... ताज्जुब है इसके खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठाई जाती.. क्या दुनिया के दूसरे विकसित या विकासशील देशों में भी ट्रैफिक बंदोबस्ती के नाम पर ये अंधेरगर्दी चल रही है।
आपका हमसफर


दीपक नरेश

1 टिप्पणी:

Suresh Gupta ने कहा…

"ट्रैफिक सिपाही वसूली के लिए ही ड्यूटी कर रहे हैं", यह बात सच है. और यह बात और सेवाओं पर जैसे रेलवे पर भी लागू होती है. जुर्माना बसूलने के टारगेट्स निर्धारित होतें हैं. यह टारगेट्स पूरे न होने पर कर्मचारियों की सालाना रिपोर्ट में नकारात्मक टिपण्णी की जाती है. अब इस सिस्टम में तो आम आदमी ही मरेगा न.