मंगलवार, 22 अप्रैल 2008

कुछ हाइकू .........

लखनऊ से भाई राहुल उपाध्याय ने ये हाईकू छंद भेजे हैं....जापानी छंद के तौर पर हिंदी में बेहद लोकप्रिय इस शैली की कविताओं का अपना एक अलग मिजाज होता है.. तो हाजिर है चंद अल्फाजों में गहरी से गहरी बात बयां करती राहुल भाई की ये रचनाएं...

मेरे भाई हो
बिल्कुल अलग
मुझसे दूर
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नभ के तारे
हैं कितने प्यारे
लेकिन दूर
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अंतर्मन
सुंदर पीड़ा से
खिल आया है
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चिडिया उड़ी
उड़कर आई है
धरती पर
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शब्द पार
अर्थ कई मिले हैं
तुम जैसे ही
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मेरे बाद तू
किसके बाद कौन
छोडो इसको

सोमवार, 21 अप्रैल 2008

कोउ 'नृप' होउ हमहि का हानी

भाई नीरज पांडे की कलम से....

नवाब अब रहे नहीं। नाममात्र के भी नहीं (नेपाल से राजशाही की विदाई हो रही है), लेकिन नवाबी जारी है। काम के नहीं तो नाम के सही। मिसाल के तौर पर हमारे मित्र दीपक 'नरेश' उर्फ़ 'राजा' बनारस। इनके स्वघोषित और आत्मविज्ञापित राजशाही पर सचमुच के राजा लोग चिढ़ गए। लाजिमी है, ऐसे राजाओं का न तो प्रचंड जैसे माओवादी कुछ बिगाड़ सकते हैं, न सरदार पटेल जैसी लौह क्षमता इनकी रियासत विलीन कर पाई (रियासत रहे तब तो, पहले ही कह दिया नाम के राजा हैं)। सो ‘forced (बलात) -retired’
(गणतंत्र दिवस की कमेंट्री की तरह हिंदी-अंग्रेजी दोनों जरूरी है) राजा लोग हताशा, निराशा और ईर्ष्या के वायरल से ग्रस्त होकर एक दिन दीपक ‘नरेश’ को घेर लिए। पकड़ के ले गए डॉमिनिक रिपब्लिक ऑफ कांगो। अफ्रीका के घने जंगलों में। ‘दीपक को काटो तो खून नहीं।‘ (मैं नहीं कह रहा...वर्षा वन में फैले मलेरिया के मच्छरों ने कहा, क्योंकि दीपक का खून डर के मारे सूख चुका था।) खैर वहां सच के राजाओं के मध्य दीपक ‘नरेश’ की पेशी हुई। सवाल- क्या नाम है? जवाब- दीपक ‘
नरेश’ उर्फ राजा ‘बनारस’। सवाल- तुम्हारे साथ कैसा सलूक किया जाए? जवाब-जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है। सवाल- अच्छा ठीक है, पहले हिंदुस्तान के तीन राजाओं के नाम बताओ। जवाब- राजा भैया...खामोश (दीपक को बीच में ही रोक दिया गया)...ये राजा भैया कहां का राजा है? जवाब- जी वो..जी सवाल- क्या जी..जी लगा रखी है...हमने सुना कि तुम्हारे यहां बड़ा शौक है लोगों को राजा कहलाने का...राजनीति में तो जहां-तहां के राजा हैं ही...फिल्मों में भी बादशाह और किंग हैं...और सुना कि एक शहर में अचानक 11 राजा पैदा हो गए हैं...(राजाओं का ताज़ा गुस्सा प्रीटी जिंटा के ‘किंग्स’ एलेवन से है )...? असली राजाओं से घिरे दीपक ‘
नरेश’ की सिट्टी-पिट्टी गुम है। इतने में कहीं से जंगल का राजा दहाड़ते हुए निकल आता है। दीपक भाई चौंक कर जाग जाते हैं...ऑफिस के लिए देर हो रही है...कान से फोन और सीने से बिटिया को चिपकाए अखबार की सुर्खियों पर नज़र डालते हैं- ‘कर्नाटक में बीजेपी और देवगौड़ा फिर हाथ मिलाने को तैयार’...’अब गरीबों को एक रुपये किलो मिलेगा चावल’...’विदर्भ में कर्ज से दबे एक और किसान की आत्महत्या’....गाड़ी में बैठे तो रेडियो पर गलती से पता नहीं कौन सा पुराना स्टेशन ट्यून हो गया। तुलसीदास की चौपाई चल रही है... कोउ ‘नृप’ होउ हमहि का हानी।

होना.. ना होना

होना...
एक सीमा रेखा है..
असीमित के खुले विस्तार में
दुख की नदी के
दोनों पाटों पर भव्य प्रासाद
ना होने को..
संकुचित कर देते हैं....
उपस्थित की भीतियों से
शनै शनै टकराती हैं..
संभाव्य की लहरें...
सीमा रेखा होकर भी
अर्थहीन है
ना होना एक अर्थ है
शब्द, समर, शेष से परे,......

कोलाज

ट्रेन की गति में एक लय है
रोटी की खुशबू है,
संघर्ष के पसीने की चमक
सूरज भी सलामी देता है..
बेतहाशा भाग रही रेलगाड़ियों को
पटरियों पर दौड़ रही चमकीली किरनें
ट्रेन के आगे-आगे..
.....
भीख मांगते बच्चे
सच का कोई कोना
जिजीविषा की रोशनी मे नहाया...
बूढ़ी औरत किसी कोने मे दुबकी
मरने के खौफ से
भीड़ से बचती..
कौन कहता है..
जीवन सुरक्षित है धऱती पर,
जबकि मौत भी आहट के बगैर
बेखौफ चल रही है साथ-साथ
गली-मोड़-नुक्कड़ से
घर की देहरी तक...
याद ना करो कि मुसलमान हो तुम
गर हिंदुओं के मोहल्ले से गुजरो..
मस्जिद के सामने भजन के शोर से
जाग सकते हैं दंगे....
क्योंकि जीवन नहीं है सुरक्षित धरती पर...

सुनामी पर कुछ पढ़ते हुए

हमारे समय में
कुछ अनकही बातें..
दिमाग के किसी कोने में..
करवट लेती
उनकी आहट खामोश नहीं..
एक अनचीन्हें भय का साया
हमारे समय में..
क्या शब्द व्यक्त कर पाएंगे..
जब खामोश धरती के सीने पर
गरज उठा था..
समुद्र के आतंक का शोर..
प्रशांतता की मर्यादा रेखा के पार
मौत की लहरों में ..
तबाही का मंजर...
हमारे समय में..
एक खामोश सिसकी....
रिश्ते जिनको नाम नहीं दे सकते,
मानवता की दुहाई भर
हमारी आत्माओं को कचोटते कुछ प्रश्न
जिम्मेदार कौन? जिम्मेदार कौन ?

आतंकवाद

वो बेकसूरों का खून बहाते हैं
और निर्दोष चेहरों पर
दहशत की तस्वीर टांगते हैं,..
उनके कारनामे सारी दुनिया के मुंह पर तमाचा हैं..
औऱ टुकड़ों-टुकड़ों में बिखरी हमारी कोशिशें
जीत उनकी हमारी हताशा है..
हम सीमाओं के दायरे में
अपने पराये का भेद करते हैं
औऱ वो जाति नस्ल भूल
हमारे बच्चों की तकदीर खराब करते हैं...
हमारी जंग मे स्वार्थ है
खुद को बचा लें..
मगर पड़ोसी के घर की आग से वास्ता नहीं रखते
औऱ वो आतंक और मातम की सौगात..
हर देश, हर बस्ती और हर कबीले में बांटते हैं
हम खो रहे हैं मानवता से रिश्ता
औऱ लड़ रहे हैं एक छद्म लड़ाई
हमारी लड़ाई में दुश्मन ताकतवर
ही नहीं अदृश्य है
वो मिलता नहीं, मगर हर कहीं है
आतंकवाद का साया अब अनजाना नहीं
उसकी दहशत हमारी रूह के करीब है

रविवार, 20 अप्रैल 2008

कब आएगा ये वक्त.....

परमेंद्र मोहन जी हमारी जमात के उन लोगों में हैं जिनकी शराफत की मिसाल देने में कोई भी नहीं डगमगाएगा...उनकी तारीफ के लिए सही अल्फाज ढूंढने के लिए आप सब से थोड़ी वक्त की मोहलत मांग रहा हूं..उम्मीद है जल्द ही उनके माकूल कुछ लिख सकूंगा.. फिलहाल उनकी कलम से निकले कुछ मोती पेश-ए-खिदमत है...

कुछ लोग दोस्तों से कतराते हैं तो कुछ दोस्त बनाते हैं, हम दूसरी कैटेगरी वाले हैं...यही वजह है कि दो फक्कड़ों की दोस्ती हो गई। अब दीपक जी की तमन्ना थी कि मैं भी कुछ लिखूं पर वक्त नहीं मिल रहा था...वजह ये थी कि करियर और परिवार के साथ मैं अपने एक और दोस्त के पास अचानक हुई वक्त की तंगी से कुछ परेशान था...तो राजा बनारस जी की खिदमत में मेरी पहली तुकबंदी की थीम है....वक्त

उस दिन फिर मैंने उनसे वक्त मांगा और फिर दिल हुआ बेज़ार,
उन्होंने कहा.. फिर कभी, और लंबा हुआ इंतजार..
अब करता हूं अफसोस कि क्यों उनसे मांगा वक्त,
बड़े बेवक्त पर इस बार भी वो कर गए इनकार...


मेरे लिए अब उनके पास वाकई नहीं है वक्त,
वक्त ने ही तो बदल दिया उनका पुराना वक्त,
पर मानता नहीं है मेरा दिल ये कमबख्त,
और मांग बैठता है उनसे अब भी थोड़ा वक्त...

गर बस चले इस दिल का तो ये थाम लेता वक्त,
एक वक्त था, जब उनके पास था मेरे लिए भी वक्त..
हर शाम का था साथ और कट जाता था वो वक्त
अब यादों में ही सिमट गया है गुजरा वक्त...

करता हूं वक्त से ये इल्तिजा कि मेरा भी आए वक्त,
और लौटा दे वही दोस्त, कभी वो भी आए वक्त...

जिंदगीनामा

कातिल ने बिठाए थे सुरागों पर कड़े पहरे,
साजिश में फंस गए थे बेगुनाह कई चेहरे,
हादसों में तब्दील हुई अपराध की तस्वीर,
सफेदपोश चालों में फंसी बेगुनाह की तकदीर,
नेता बने अपराधी या अपराधियों की सरकार,
राजनीति के दरबार में है पुलिस भी लाचार,
हुकुमत नहीं सोई कहे कागज के परिंदे,
शरीफों को हुई जेल हैं बेखौफ दरिदे,
किसी की बेटी लुटी है किसी का घरबार,
अपराध से फलफूल रहा खबरों का बाजार,
दिल और दिमाग दोनों पर भय का अजब ये जाल,
हर मोड़ पर मुमकिन है मिल जाए एक सवाल,
जो घर छोड़ के निकलो तो हथियार साथ लो,
नामालूम कब किधर हो जाए कोई बवाल,
जीना है जरूरी लेकिन रोटी बड़ी दिक्कत,
फल-फूल रहा हर कहीं नफरत का कारोबार,
अमनो सुकूं की बात की तो जान से गए,
गांधी को हमसे बिछड़े कई साल हो गए...

ये जो है जिंदगी

वक्त के समंदर में तकदीर की नाव,
कहीं पड़े भारी कहीं गलत लगा दांव,
हालात बेकाबू हुए तो खामोश रहे हम,
कारवां की धूल में भी खूब चले पांव,
जब मिली शाहकारी तो बेफिक्र हो गए,
अंदाजे जिंदगी में कई रंग घुल गए,
कौन जाने कब कहां मिल जाए ये खुदा,
हर पाप और पुन्य को सजदा किए गए,
वक्त जो कहता, मुमकिन ना हो तुम्हे मंजूर,
माकूल हालात ने भी फासले दिए,
तंग तकदीरों से भी दिल खोल के मिलो,
हर इम्तेहान जिंदगी में देते सबक नए,
जो मिल जाए हम यूं ही किसी राह मोड़ पर,
मुस्कराहटें और दो बाहों के दायरे,

रविवार, 6 अप्रैल 2008

अपने कभी नहीं बिछुड़ते..

प्रोफेसर बच्चन सिंह नहीं रहे....हिंदी का विद्यार्थी होने के नाते एक लंबे वक्त तक उनको पढ़ने का सिलसिला चलता रहा..वैसे ये पढ़ाई अकादमिक रही लेकिन प्रोफेसर साहेब से एक नाता उस वक्त जुड़ा जब उनके बेटे प्रोफेसर सुरेंद्र सिंह मेरी पीएचडी के फाइनल वाइवा के लिए लखनऊ यूनिवर्सिटी आए.. उस वक्त तक मैं मीडिया में पूरी तरह से खप चुका था या यूं कहें कि मीडिया में मेरी लैंडिंग कंपलीट हो चुकी थी..एक लंबी बातचीत का दौर और सवालों की एक लंबी फेहरिस्त.... मसलन हिंदी में इस स्तर तक पढ़ाई और फिर मीडिया में जाना....उनके ज्यादातर सवालों के लिए मैंने कोई ना कोई जवाब जरूर ढूंढा... कुछ जूझकर तो कुछ बूझकर.. कुछ तो बेहद बनावटी.....महज खुद की खाल को बचाने के लिए (आखिर इतनी मेहनत के बाद पीएचडी की डिग्री जो हासिल करनी थी) लेकिन सवालों की इस खेप में एक सवाल ऐसा भी था जिसका जवाब मैं आजतक नहीं ढूंढ पाया.. जाते जाते उन्होंने पूछा था कि क्या इस पढ़ाई का मैं मीडिया में कोई इस्तेमाल कर पाउंगा.. ये सवाल मेरे जेहन में आज भी टंगा है.. सच बताऊं मैं खुद नहीं जानता लेकिन इतना तय था कि जीने की जद्दोजहद और किताबी कसरतों में तालमेल बिठाना हकीकत में काफी टेढ़ी खीर है.. ऐसे में प्रोफेसर साहब की एक बात मुझे रह-रह कर जरूर याद आती है कि... जहां भी रहो अपनी बेफिक्री और जिंदादिली का भरपूर इस्तेमाल करो क्योंकि मेरे पिताजी ने मुझे यही विरासत सौंपी है और मैं हमेशा से इसे अपने छात्रों के साथ बांटता आया हूं.....साहित्य की उसी परपंरा के स्नेह स्पर्श का एक सुखद एहसास... खुशकिस्मती से जो मेरे हिस्से आया ...साहित्य की आत्मा को एक नया संस्कार देने वाले प्रोफेसर बच्चन सिंह को भावभीनी श्रद्धाजंलि....

ये इंतजाम तो सॉलिड है रे बाबा..

आज अखबार में एक खबर पढ़ी बिहार में दवाइयों की भी जाति तय कर दी गई है यानि फला जांति का डॉक्टर एक खास कंपनी की दवा ही लिखेगा..इतना ही नहीं उस कंपनी से जुड़े ज्यादातर डॉक्टर और कारोबारी भी उसी जाति के हैं..मुझे याद आ रहा है कि टॉलकॉट परसंस ने कहीं लिखा था कि कास्ट इज द सेकेंड लाइन ऑफ डिफेंस यानि देसी अंदाज में कहें तो बरही से लेकर तेरहवीं तक रिश्तेदारी का धरम निभाने की कवायद और पहचान के संकट से निपटने का सॉलिड इंतजाम.... लेकिन जाति बिरादरी का इस तरीके का इंतजाम भी मुमकिन हो जाएगा ये तो परसंस साहेब ने भी नहीं सोचा होगा..लेकिन रवीश भाई अब तो ये सोचने का वक्त है कि दवाओं की जाति तय करने से कितने फायदे हो जाएंगे...भई दूसरे जाति की दवाई खाकर मरने से तो बेहतर है अपनी जाति की दवा खाकर ही मरा जाए वैसे भी दवा लिखने वाला डॉक्टर अपनी बिरादरी का होगा तो खाने तो आएगा ही अब चाहे बरही हो या तेरहवीं...दूसरी बात अगर गलती से दवा किसी दूसरी जाति के मरीज ने खाई और वो मर गया तो डॉक्टर इस इल्जाम में फंस सकता है कि दूसरी जाति का होने के चलते उसने मरीज को गलत दवा दे दी... ऐसें में अगर हंगामा होगा तो दो जातियों के लोगों के बीच झड़प हो सकती है....दंगे आगजनी तोड़फोड़ कुछ भी मुमकिन है..दूसरे शब्दों में कहें टीवी चैनलों के लिए भरपूर मसाला...एक बात और रवीश भाई इस व्यवस्था के फायदे तो मरने के बाद भी मिलेंगे मसलन....अगर स्वर्गलोक में कोटा एलाटमेंट की बात हुई तो वहां भी दवाइयों को क्राइटेरिया बनाया जा सकेगा.. यानी एक ही किस्म की दवा खाकर मरे लोगों की एक बिरादरी होगी.. यहां भले ही दूसरी जाति के हों लेकिन वहां तो सब एक दवा के दागे होंगे...भई वाह..समाज विज्ञानियों के लिए मगजमारी का पूरा मसाला जुटा दिया है रवीश भाई ने.. मैं तो बस यही कहूंगा कि रवीश भाई एक कोलंबस था जिसने अमरीका खोजा था और दूसरे आप हो जिसने ढूंढ निकाले समाज में छिपे एक ऐसे रहस्य को जिसे समझने की कवायद काफी दिलचस्प होगी....बधाई

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2008

कसूर किसका ?

राहुल भाई की लेखनी से....

दोस्ती निभती नहीं

सच कहा दोस्ती निभती नहीं

निभे भी कैसे ?

तुम्हारे सतत् आघात मैं सह नहीं पाता

अपनी पीड़ा को हंसकर छुपा नहीं पाता

आत्मीयता के विस्तार में सीमा रेखाएं खीच नहीं पाता

दोस्ती के फासले जान नहीं पाता

अपनी परम अभिव्यक्ति रोक नहीं पाता

दोस्ती निभे भी कैसे ?

जब मेरी विनम्रता

तुम्हारे अहम् की पोषक बन जाए

तुम्हारी हँसी मेरे ह्र्दय पर कटाक्ष कर जाए

मेरा प्यार तुम्हारे गर्व का हास बन जाए

दोस्ती निभे भी कैसे ?

जब मैं झूठ तुमसे कह नहीं पाता

तुम्हारा पतन सह नहीं पाता

वह जाल जिसमें आदमी फंसते हैं

मैं बुन नहीं पाता...........