रविवार, 6 अप्रैल 2008
ये इंतजाम तो सॉलिड है रे बाबा..
आज अखबार में एक खबर पढ़ी बिहार में दवाइयों की भी जाति तय कर दी गई है यानि फला जांति का डॉक्टर एक खास कंपनी की दवा ही लिखेगा..इतना ही नहीं उस कंपनी से जुड़े ज्यादातर डॉक्टर और कारोबारी भी उसी जाति के हैं..मुझे याद आ रहा है कि टॉलकॉट परसंस ने कहीं लिखा था कि कास्ट इज द सेकेंड लाइन ऑफ डिफेंस यानि देसी अंदाज में कहें तो बरही से लेकर तेरहवीं तक रिश्तेदारी का धरम निभाने की कवायद और पहचान के संकट से निपटने का सॉलिड इंतजाम.... लेकिन जाति बिरादरी का इस तरीके का इंतजाम भी मुमकिन हो जाएगा ये तो परसंस साहेब ने भी नहीं सोचा होगा..लेकिन रवीश भाई अब तो ये सोचने का वक्त है कि दवाओं की जाति तय करने से कितने फायदे हो जाएंगे...भई दूसरे जाति की दवाई खाकर मरने से तो बेहतर है अपनी जाति की दवा खाकर ही मरा जाए वैसे भी दवा लिखने वाला डॉक्टर अपनी बिरादरी का होगा तो खाने तो आएगा ही अब चाहे बरही हो या तेरहवीं...दूसरी बात अगर गलती से दवा किसी दूसरी जाति के मरीज ने खाई और वो मर गया तो डॉक्टर इस इल्जाम में फंस सकता है कि दूसरी जाति का होने के चलते उसने मरीज को गलत दवा दे दी... ऐसें में अगर हंगामा होगा तो दो जातियों के लोगों के बीच झड़प हो सकती है....दंगे आगजनी तोड़फोड़ कुछ भी मुमकिन है..दूसरे शब्दों में कहें टीवी चैनलों के लिए भरपूर मसाला...एक बात और रवीश भाई इस व्यवस्था के फायदे तो मरने के बाद भी मिलेंगे मसलन....अगर स्वर्गलोक में कोटा एलाटमेंट की बात हुई तो वहां भी दवाइयों को क्राइटेरिया बनाया जा सकेगा.. यानी एक ही किस्म की दवा खाकर मरे लोगों की एक बिरादरी होगी.. यहां भले ही दूसरी जाति के हों लेकिन वहां तो सब एक दवा के दागे होंगे...भई वाह..समाज विज्ञानियों के लिए मगजमारी का पूरा मसाला जुटा दिया है रवीश भाई ने.. मैं तो बस यही कहूंगा कि रवीश भाई एक कोलंबस था जिसने अमरीका खोजा था और दूसरे आप हो जिसने ढूंढ निकाले समाज में छिपे एक ऐसे रहस्य को जिसे समझने की कवायद काफी दिलचस्प होगी....बधाई
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1 टिप्पणी:
काहे की बधाई...इतनी भीतर की खबर आपके पत्रकार ने ढूंढ़ निकाली, लेकिन उन्हें आरक्षण के खिलाफ चलाए गए आंदोलन में कोई जातीय चिंगारी नहीं दिखाई पड़ी? दिल्ली समेत कई शहरों के जाने-माने मेडिकल कॉलेजों में जाति विशेष के छात्रों को अशोभनीय यातनाएं दी गईं..ख़बर सूंघने के लिए या तो नुकीली नाक नहीं है...या फिर दुर्गंध समझकर सांस रोक ली थी...पत्रकारीय धर्म में ऐसा नहीं चलेगा।
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