रविवार, 6 अप्रैल 2008
अपने कभी नहीं बिछुड़ते..
प्रोफेसर बच्चन सिंह नहीं रहे....हिंदी का विद्यार्थी होने के नाते एक लंबे वक्त तक उनको पढ़ने का सिलसिला चलता रहा..वैसे ये पढ़ाई अकादमिक रही लेकिन प्रोफेसर साहेब से एक नाता उस वक्त जुड़ा जब उनके बेटे प्रोफेसर सुरेंद्र सिंह मेरी पीएचडी के फाइनल वाइवा के लिए लखनऊ यूनिवर्सिटी आए.. उस वक्त तक मैं मीडिया में पूरी तरह से खप चुका था या यूं कहें कि मीडिया में मेरी लैंडिंग कंपलीट हो चुकी थी..एक लंबी बातचीत का दौर और सवालों की एक लंबी फेहरिस्त.... मसलन हिंदी में इस स्तर तक पढ़ाई और फिर मीडिया में जाना....उनके ज्यादातर सवालों के लिए मैंने कोई ना कोई जवाब जरूर ढूंढा... कुछ जूझकर तो कुछ बूझकर.. कुछ तो बेहद बनावटी.....महज खुद की खाल को बचाने के लिए (आखिर इतनी मेहनत के बाद पीएचडी की डिग्री जो हासिल करनी थी) लेकिन सवालों की इस खेप में एक सवाल ऐसा भी था जिसका जवाब मैं आजतक नहीं ढूंढ पाया.. जाते जाते उन्होंने पूछा था कि क्या इस पढ़ाई का मैं मीडिया में कोई इस्तेमाल कर पाउंगा.. ये सवाल मेरे जेहन में आज भी टंगा है.. सच बताऊं मैं खुद नहीं जानता लेकिन इतना तय था कि जीने की जद्दोजहद और किताबी कसरतों में तालमेल बिठाना हकीकत में काफी टेढ़ी खीर है.. ऐसे में प्रोफेसर साहब की एक बात मुझे रह-रह कर जरूर याद आती है कि... जहां भी रहो अपनी बेफिक्री और जिंदादिली का भरपूर इस्तेमाल करो क्योंकि मेरे पिताजी ने मुझे यही विरासत सौंपी है और मैं हमेशा से इसे अपने छात्रों के साथ बांटता आया हूं.....साहित्य की उसी परपंरा के स्नेह स्पर्श का एक सुखद एहसास... खुशकिस्मती से जो मेरे हिस्से आया ...साहित्य की आत्मा को एक नया संस्कार देने वाले प्रोफेसर बच्चन सिंह को भावभीनी श्रद्धाजंलि....
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