रविवार, 20 अप्रैल 2008

कब आएगा ये वक्त.....

परमेंद्र मोहन जी हमारी जमात के उन लोगों में हैं जिनकी शराफत की मिसाल देने में कोई भी नहीं डगमगाएगा...उनकी तारीफ के लिए सही अल्फाज ढूंढने के लिए आप सब से थोड़ी वक्त की मोहलत मांग रहा हूं..उम्मीद है जल्द ही उनके माकूल कुछ लिख सकूंगा.. फिलहाल उनकी कलम से निकले कुछ मोती पेश-ए-खिदमत है...

कुछ लोग दोस्तों से कतराते हैं तो कुछ दोस्त बनाते हैं, हम दूसरी कैटेगरी वाले हैं...यही वजह है कि दो फक्कड़ों की दोस्ती हो गई। अब दीपक जी की तमन्ना थी कि मैं भी कुछ लिखूं पर वक्त नहीं मिल रहा था...वजह ये थी कि करियर और परिवार के साथ मैं अपने एक और दोस्त के पास अचानक हुई वक्त की तंगी से कुछ परेशान था...तो राजा बनारस जी की खिदमत में मेरी पहली तुकबंदी की थीम है....वक्त

उस दिन फिर मैंने उनसे वक्त मांगा और फिर दिल हुआ बेज़ार,
उन्होंने कहा.. फिर कभी, और लंबा हुआ इंतजार..
अब करता हूं अफसोस कि क्यों उनसे मांगा वक्त,
बड़े बेवक्त पर इस बार भी वो कर गए इनकार...


मेरे लिए अब उनके पास वाकई नहीं है वक्त,
वक्त ने ही तो बदल दिया उनका पुराना वक्त,
पर मानता नहीं है मेरा दिल ये कमबख्त,
और मांग बैठता है उनसे अब भी थोड़ा वक्त...

गर बस चले इस दिल का तो ये थाम लेता वक्त,
एक वक्त था, जब उनके पास था मेरे लिए भी वक्त..
हर शाम का था साथ और कट जाता था वो वक्त
अब यादों में ही सिमट गया है गुजरा वक्त...

करता हूं वक्त से ये इल्तिजा कि मेरा भी आए वक्त,
और लौटा दे वही दोस्त, कभी वो भी आए वक्त...

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