सोमवार, 21 अप्रैल 2008

आतंकवाद

वो बेकसूरों का खून बहाते हैं
और निर्दोष चेहरों पर
दहशत की तस्वीर टांगते हैं,..
उनके कारनामे सारी दुनिया के मुंह पर तमाचा हैं..
औऱ टुकड़ों-टुकड़ों में बिखरी हमारी कोशिशें
जीत उनकी हमारी हताशा है..
हम सीमाओं के दायरे में
अपने पराये का भेद करते हैं
औऱ वो जाति नस्ल भूल
हमारे बच्चों की तकदीर खराब करते हैं...
हमारी जंग मे स्वार्थ है
खुद को बचा लें..
मगर पड़ोसी के घर की आग से वास्ता नहीं रखते
औऱ वो आतंक और मातम की सौगात..
हर देश, हर बस्ती और हर कबीले में बांटते हैं
हम खो रहे हैं मानवता से रिश्ता
औऱ लड़ रहे हैं एक छद्म लड़ाई
हमारी लड़ाई में दुश्मन ताकतवर
ही नहीं अदृश्य है
वो मिलता नहीं, मगर हर कहीं है
आतंकवाद का साया अब अनजाना नहीं
उसकी दहशत हमारी रूह के करीब है

कोई टिप्पणी नहीं: