शनिवार, 31 मई 2008
चरैवेति..चरैवेति यानी चरते रहो..चरते रहो
एक जगह बांग्लादेशी हमसे बाजी मार गए...ये हुनर तो हमारे नाम पेटेंट होना चाहिए था..ऐसी कलाकारी के लिए तो हमारे देश के राजनेता ही कुख्यात..माफ कीजिएगा विख्यात हैं.. फिर बांग्लादेश इस बार कैसे बाजी मार गया.. जब ये खबर हमारे देश के नेताओं के कानों तक पहुंची तो उन्हें बेहद अफसोस हुआ.. ..लेकिन ये अचंभा हुआ कैसे...कहां हुई चूक..हर जगह भारी पड़ने वाले नेताओं के लिए ये मौका हाथ से कैसे निकल गया...नेताओं का जमावड़ा हुआ..सब जुटे और मिलबैठकर दिमागी घोड़े--गदहे जो भी होते हैं दौड़ाना शुरु कर दिया.. आखिर हमारे रहते इस पिद्दी से देश की ये मजाल कि जो खबर हममें से किसी की तारीफ से जुड़ी होनी चाहिए थी उसमें उनकी फोटू और नाम चमक रिया है.....चंद नेता जिनको अब तक पता भी नहीं था कि माजरा क्या है चुपचाप टुकटुकी लगाए हर बोलने वाले शख्स की सूरत निहार रहे थे..मन ही मन कुलबुला रहे थे कि काश एक बार मुद्दा पता चल जाता तो किसी को बोलने का मौका ही नहीं देता..हर किसी की डुग्गी बजा देता...मुझसे बड़ा बातूनी अफलातून कोई है यहां पर.. एक बार मुद्दा हाथ लग जाता तो ऐसा बोलता ऐसा बोलता कि सबकी बोलती बंद कर देता.....तभी एक आवाज हवा में गूंजी..खाआआआआ...मोशशशश.. मतलब साफ था मुद्दे का खुलासा होने वाला था.. एक कद्दू जैसी काया और बैगनी रंग से सराबोर नेता ने बामुश्किल बदन संभाल रहे पैरों को एक दूसरे का सहारा दिया और बैठे हुए सभी नेताओं के बीच से उठकर अंतरिक्ष से अपनी दूरी तनिक कम की...जुबान की गरदन गुटखा सहलाते सहलाते पहले ही टें हो चुकी थी सो उसी जुबान को मुंह में योगा कराने के बाद मुंह खोला और फिर फूटे चंद अल्फाज..भाइयों....नेता जाग चुके थे..मुंह खुल चुका था मुद्दा बस अब एक ही पल में हवा में अवतार लेने वाला था.....नेता जी जारी हो चुके थे.....ये बेहद अफसोस की बात है कि हम नेताओं के साफ सुथरे काजली इतिहास में कभी भी ऐसा मौका नहीं आया जब इतनी ज्यादा शर्मिंदगी और जलालत झेलनी पड़ी हो...हमारे पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना जो हम नेताओं के हुनर के मामले में हमारी मुंहबोली बहन लगती है.... उन पर भ्रष्टाचार के कुछ मुकदमें चल रहे थे...लेकिन आज ही ये ब्रेकिंग न्यूज मिली की उनके मुकदमें के अहम कागजात दीमक चाट गए...उनके वकीलों ने विशेष अदालत में जिरह के दौरान बताया कि कई पन्ने तो इतनी बुरी तरह खराब हो चुके हैं कि उन्हें पढ़ा ही नहीं जा सकता.....इतना ही नहीं इस बात की तस्दीक कराने के लिए कीड़ों की खाई फाइलों को अदालत में पेश भी किया गया..अब आप लोग ही तय कीजिए कि हिंदोस्तान में थोक के भाव हमारी जमात उपलब्ध है लेकिन ये यक्क आइडिया हम में से किसी के जेहन में क्यों नहीं आया.. सोचिए अगर ये फार्मूला हमारे हाथ पहले आ गया होता तो हमारे कितना सारे नेता भाइयों को जेल से अब तक छुड़ा लिया जाता उनको आजादी की खुली हवा में सांस लेने का मौका मिल जाता..हम में से कई बंधु कितनी तरह की तोहमत के साथ जी रहे हैं उनसे कब ना मुक्ति मिल जाती..
------मुद्दा सामने था.. सब शोक मना रहे थे कि ये फार्मूला अगर पहले ही उन तक पहुंच जाता तो कितना अच्छा रहता..आखिर आमराय ये बनी कि भले ही इस तरीके का इजाद बांग्लादेश में हुआ लेकिन इसको पेटेंट कराने की अर्जी दी जाएगी और ये साबित करने की कोशिश की जाएगी की ये फार्मूला चोरी का है और इसे हमारे देश से चुराया गया है ...इतना ही नहीं ये भी साबित करने की कोशिश की जाएगी कि काम के मामले में दीमक हमारे भाई हैं लिहाजा उनके सरंक्षण संवर्धन के लिए हर गांव गली कस्बे में एक संरक्षण केंद्र खोला जाएगा.. ताकि देश की तकदीर बनाने में उनका भी सक्रिय योगदान लिया जाए.....
------ और इस प्रस्ताव के साथ बैठक का समापन हो गया।
आपका हमसफर
दीपक नरेश
ये काम नहीं आसां..बस इतना समझ लीजे.....
नेता ही किसी देश की तकदीर संवार सकते हैं..औऱ नेताओं की मौजूदगी से ही लोकतंत्र संवर-निखर सकता है..नेता माने नेतृत्व माने देश का विकास..माने सब का कल्याण...माने ब्ला-ब्ला.. अद्भुत संकल्पना..भारत जैसे महादेश के संविधान में ना लिखी गई एक सच्चाई...मगर जो संविधान के हर हिस्से में पैबस्त है..नेताओं की खामोश मौजूदगी. वो बात अलग है कि नेता शब्द की जो परिभाषा और पहचान बताई गई थी उसमे आमूल-चूल परिवर्तन हो चुका है.. नेता अब ने..टा हो चुके हैं...कार्पोरेट समाज में कार्पोरेट नेटा मौजूद हैं....वो हाईटेक हैं..उनको पढ़े लिखे लोगों की जाहिलियत का अंदाज लगाने का हुनर आ गया है..वो सर्व विद्यमान टाइप का माहौल बनाने में भी महारत हासिल कर चुके हैं..एक ही वक्त पर वो किसी टीवी शो में. इंटरव्यू में. नाइट पार्टी में. और किसी जली हुई बस्ती का मुआयना करते नजर आ सकते हैं... कई तो ये भी भूल चुके हैं कि वो निरक्षर से थोड़े ही ज्यादा साक्षर हैं...वो नित नए नए हुनर सीख रहे हैं..जनता के सेवक ये नेटा..अब अपनी कीमत का अंदाजा लगा चुके हैं औऱ खुद की नेटाई को बनाए रखने के लिए लोगों की औकात आंकने में भी गलती नहीं करते....लेकिन नेटा अभी ग्लोबल नहीं हो पाए हैं..कई नेताओं का ये दर्द गाहे-बगाहे दिख जाता है.. अभी मेरे एक पत्रकार मित्र ने मुझे एक दिलचस्प वाकया सुनाया,..उनके एक नेता से थोड़ा दोस्ताना ताल्लुकात हैं नेता जी अकसर अपनी पहुंच और अपने रसूख के किस्से मेरे पत्रकार मित्र को सुनाते रहते हैं...वैसे ये सच भी है.प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी में उनकी खासी हनक है..एक डेलिगेशन का सदस्य बनकर नेता जी हाल ही में लंदन गए थे.. वहां दस दिन बिताकर जब वो वापस लौटे तो मुंह उतरा हुआ था.. मित्र ने हाल पूछा तो उनका दर्द छलक आया.. बोले बंधु मैं अभी लंदन में रह कर आया हूं लेकिन वहां रहने के बाद मुझे एहसास हुआ कि हम लोग कितने उम्दा किस्म के जाहिल और गंवार हैं...मित्र के बहुत कुरेदने पर बोले कि.. यार जब मैं हवाई जहाज मे चढ़ रहा था तो मेरा अंदाज ऐसा था मानो गांव वाली बस पर चढ़ रहा हूं..साला..प्लेन के दरवाजे पर पहुंचते ही हाथ अपने आप बस के दरवाजे पर लगे हत्थे को पकड़ने के लिए उठ गया. वहां खड़ी मोहतरमा ने अगर खुद को संभाला ना होता तो साला पिट ही जाता... लंदन पहुंचा तो हर वक्त दतून करने की ही तलब लगी रहती थी...खाना खाते वक्त ऐसा लगता था मानो आज दातून कुल्ला किया ही नहीं..ऊपर से सेमिनार और मीटिंग्स में भी बैठते थे तो ऐसा लगता था मानो किसी बाबा के प्रवचन सत्संग में शिरकत कर रहे हैं... दिमागी तौर पर जाहिल हैं भाई साहेब ऐसे में मंत्री कैसे बन पाएंगे..मेरा पत्रकार मित्र जो बेचारा बड़ी मासूमियत से सुन रहा था.. बोला निराश क्यों होते हैं नेता जी आप जैसे ही तो एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देखते हैं और सच तो ये है कि आप में ऐब हैं तो आप को दिख रहा है...औऱ यही तो सुधारना है..खुद सुधार लीजिएगा तो बेहतर नहीं तो जनता सुधारती रहेगी..हर साल इलेक्शन में...मित्र की बात नेता जी के पल्ले नहीं पड़ी वो बेचारे गुद्दी ही खुजाते रह गए...लेकिन दिल की भड़ास निकालने के बाद की राहत जरूर उनके चेहरे पर नजर आ रही थी..
तो दोस्तों ये तस्वीर है उस सच्चाई की जिसे हमारे देश के नेटा ग्लोबल होने की कोशिश में झेल रहे हैं...हो सके तो उनका दर्द दूर करने में कुछ कल्चरल सहयोग देने की कोशिश कीजिए...
आपका हमसफर
दीपक नरेश
शुक्रवार, 23 मई 2008
उसूलों पर टिकने की कीमत
आपका हमसफर
दीपक नरेश
गुरुवार, 22 मई 2008
किलिंग है तो ऑनर कैसा?
नोएडा के आरुषि हत्याकांड की गुत्थियां सुलझने का नाम नहीं ले रही..पुलिस परेशान..मीडिया परेशान और जनता भी परेशान..हर कोई बस एक ही सवाल का जवाब चाहता है कि आरुषि को किसने मारा..रोज नई नई थ्योरियां आती रहती है..कभी किसी को कातिल बताया जाता है तो कभी शक की सुई घर वालों की ओर घुमाई जाती है.. अब खबर ये आ रही है कि पुलिस तहकीकात जिस ओर जा रही है उससे शायद ये साबित किया जा सके कि ये मामला ऑनर किलिंग का है.. जब पहली बार इस जुमले को सुना था तो शायद ध्यान नहीं दिया था लेकिन आज पूरे दिन ये दो शब्द ज़ेहन पर कब्जा बनाए रहे...क्या इनके व्याकरणिक गठजो़ड़ की तरह इन दो शब्दों का कोई रिश्ता भी हो सकता है पहला सवाल जो दिमाग में आता है कि अगर किलिंग ही हो रही है तो फिर ऑनर कैसा..और अगर ऑनर है तो किलिंग की जरूरत ही क्या.. पहली बार में जरूर अटपटा लगा खुद से ये सवाल पूछना लेकिन बाद में दिमाग किसी बौराए साधू की तरह अफलातूनी गुणा भाग में रम गया....किसी की जान ले लेने का हक किसी को कैसे मिल सकता है.. और अगर कोई ये अपराध करता है तो उसके लिए सम्मान कहां से बचा रहता है.. दुबारा से कोशिश करते हैं इस सवाल को सीधा करने की... अगर सम्मान की खातिर किसी की जान ले ली जाती है तो फिर आप अपराधी हो गए क्योंकि आपने कानून को तोड़ा या कहें कानून हाथ में लिया.. ऐसे में किसी अपराधी को कोई समाज सम्मान की नजर से क्यों देखेगा..जबकि अपराध करने वाले ने समाज में इज्जत बचाने या बनाए रखने के नाम पर ही वारदात को अंजाम दिया है...भई अनपढ़ और जाहिल लोग अगर ऐसा करें तो समझ में आता है लेकिन पढ़े लिखे जाहिल अगर ऐसा करते हैं और वो भी ऑनर किलिंग का सहारा लेकर तो उनके लिए एक ही सजा होनी चाहिए कि उन्हें सरेआम फांसी पर लटका दो.. वैसे जब इस शब्द की तह में जाने की कोशिश शुरु हुई तो तमाम ऐसी भी जानकारियां पल्ले आईं..जो दिल दहला देने वाली हैं। मसलन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ऐसी वारदातों की एक लंबी फेहरिस्त है जिसमें एक ही गोत्र में शादी करने वाले लड़के लड़कियों को ऑनर किलिंग के नाम पर मौत दे दी गई।. बिहार के गांवों और झारखंड के आदिवासी इलाकों में ये आम बात है.. गुजरात के बनासकाठा औऱ राजमहल इलाकों में भी ऑनर किलिंग के मामले सामने आते रहे हैं...हरियाणा औऱ राजस्थान में ऑनर किलिंग की एक भरी-पूरी परंपरा मौजूद है.......क्या ये किसी सभ्य समाज की तस्वीर हो सकती है..या फिर ये सब सुनने के बाद कौन कह सकता है कि हम आधुनिक युग में जी रहे हैं......सबसे शर्मनाक पहलू ये है कि इन वारदातों को अंजाम देने वाली संस्थाएं इतनी ताकतवर और बर्बर हैं कि प्रशासन और देश का कानून भी इनके सामने बेबस और लाचार हो जाता है...देश के हर नागरिक को ये अधिकार है कि वो अपनी पंसद की जिंदगी जी सके और संविधान और कानून में इसके लिए मुकम्मल इंतजाम भी किए गए हैं लेकिन अफसोस की बात ये है कि प्रशासन और कानून का पालन करवाने वाली संस्थाओं को राजनीतिक सिस्टम के नाम पर एक ऐसे दुष्चक्र में फंसा कर रखा गया है कि वो अपना काम करने में लाचार हैं...अपराध, राजनीति..माफिया..भ्रष्टाचार, घूसखोरी, ये सब शब्द मानों प्रशासन और कानून का पर्याय बन चुके हैं। हमारी जिंदगी में ये ऐसा घुस चुके हैं जैसे खटिए में खटमल..और अब ऑनर किलिंग का प्रेत जो गांवों की दहलीज पर लगे पीपल के पेड़ से उतर कर बेताल की तरह हमारे दिमाग में जगह बनाने की जुगत भिड़ा रहा है.... कोई ताज्जुब नहीं कि एक दिन हम ऑनर किलिंग को सुनकर ऐसे ही रियक्ट करें मानो आमिर ने शाहरुख को कुत्ता कह दिया हो या करीना ने अपना प्रेमी बदल लिया हो..
आपका हमसफर
दीपक नरेश
राह बदल गई
इश्क और दोस्ती का फसाना बदल गया है..
फितरत बदल गई है, उल्फत बदल गई है,
रिश्ते तो आज भी हैं, पर अफसाना बदल गया है..
गौर से देखिए तो कुछ अब भी है ऐसा,
जो न बदला था कभी, ना ही अब ही बदल गया है..
ये और बात है कि उनकी निगाह बदल गई है,
मंजिल तो वही है, पर अब राह बदल गई है...
उनकी राह में कभी हम भी थे, पर अब मुसाफिर बदल गए
हम आज भी हैं वही, पर मेरा यार बदल गया है...
आपका हमसफर
परमेंद्र मोहन
बुधवार, 21 मई 2008
मासूमियत बचाने की पहल
वैसे चिंता की बात ये है कि भारत मे खिलौना बनाने का ज्यादातक जिम्मा असंगठित क्षेत्र के हाथ में है औऱ इस कारोबार मे जुड़े ज्यादातर लोग सुरक्षा मानकों की परवाह नहीं करते हैं। सस्ते खिलौने मुहैया कराने के नाम पर पीवीसी की बढ़ी हुई मात्रा वाला खिलौना जब मासूम बच्चों के हाथ में जब पहुंचता है तो उनकी जिंदगी खतरे में पड़ जाती है बावजूद इसके खिलौनों में पीवीसी के स्तर को लेकर सरकार की ओर से कभी भी कोई गंभीर प्रयास नहीं किए गए। आपको बता दूं पॉली विनायल क्लोराइड वो जहरीला रसायन है जो देशभर में मौजूद 35 फीसदी से भी ज्यादा खिलौने में मौजूद है...इसके अलावा कैडियम और लेड जैसे जहरीले पदार्थ तो होते ही हैं। अब सरकार ने सुध ली है तो हमें यही दुआ करनी चाहिए कि ये समिति जो सिफारिशे दे कम से कम उसे लागू करने में राजनेताओं के निजी स्वार्थ ना आड़े आए..
आपका हमसफर,
दीपक नरेश
ब्लॉगकैंप चलो....
दोस्तों, एक जानकारी जो आपतक पहुंचानी है.. मेरे ब्लॉगर दोस्त अमित भाई के मुताबिक इंडियन ब्लॉग एंड न्यू मीडिया सोसाइटी दिल्ली में पहला ब्लॉगकैंप आयोजित कर रही है जहां पर इकट्ठें होकर ब्लॉगर बंधु ब्लॉगिंग के चलन और उससे जुड़े विभिन्न आयामों जैसे फोटो ब्लॉगिंग, वीडियो ब्लॉगिंग, माइक्रो ब्लॉगिंग और ब्लॉग मार्केटिंग पर विचार विमर्श कर सकते हैं। इससे साथ-साथ ब्लॉगिंग के बुनियादी, शुरुआती मुद्दों से लेकर भिन्न तकनीकी और गैर तकनीकी मुद्दों पर वर्कशॉप भी होगी।
आप ब्लॉगकैंप में शामिल होकर कई तरीकों से सहयोग कर सकते हैं..
-- ब्लॉगिंग से जुड़े किसी विषय पर वर्कशॉप या लेक्चर देकर
-- किसी अन्य की वर्कशॉप या लेक्चर में सहयोग देकरट
-- ब्लॉग कैप में बारे में अपने ब्लॉग पर लिखकर
-- ब्लॉग कैंप से लाइव ब्लॉगिंग करके
साथ ही आप दूसरे ब्लॉगर बंधुओं से मिलने का भी मौका पा सकेंगे..
बस आपको शनिवार 24 मई 2008 को सुबह 9.30 बजे ...
माइक्रोसॉफ्ट कॉर्पोरेशन
पांचवी मंजिल, इरोस टॉवर्स
नेहरू प्लेस, प्लेस नई दिल्ली
पहुंचना है...और हां ये निशुल्क है...
ब्लॉग कैंप के लिए आप आज ही रजिस्टर कर सकते हैं..
http://www.barcamp.org/BlogCampDelhi
शुक्रिया,
आपका हमसफर
दीपक नरेश
शनिवार, 17 मई 2008
दास्तान-ए-छीछालेदर
दरअसल बॉलीवुड की दुनिया में जिस तरह पैसा आ रहा है..या यूं कहें की बॉलीवुड दुनियाभर के निवेशकों के खजाने को लुभा रहा है उससे एक बात तो साफ है कि हर कोई उसमें से ज्यादा से ज्यादा शेयर खाने के चक्कर में है.. अब जबकि एक ही सुपरस्टार का दौर नहीं रहा और नयी फसल ज्यादा ऊर्जा और तेवर के साथ अपनी मौजूदगी दर्ज कराने की कोशिश कर रही है तो ये लाजमी है कि जमे-जमाए लोग अकुलाहट औऱ बेचैनी महसूस करें...कई सुपरस्टार तो ये भी भूल गए कि जनता के बीच उनकी स्थिति भगवान जैसी है और उन्हें इस तरह लड़ते और ओछी हरकतें करते देखकर उनके चाहने वालों को कितना बुरा लगता होगा..लेकिन भई वो तो सिर्फ एक चीज पहचानते हैं और वो है पैसा..पैसा ही उनका माई-बाप है भगवान है खुदा है.. औऱ खुद वो अगर कुछ हैं तो पैसे के मोहताज..
कुछ सितारों के साथ एक चीज लगता है फेविकोल की तरह चिपक गई है.. और वो है उनकी निजी जिंदगी का ड्रामा... इनकी कहानी में कुछ ट्विस्ट है.. कुछ पेंच है.. और अगर कुछ नहीं है तो खुद वो ही ड्रामा बने हुए हैं.... यहां एक बात मैं और कहना चाहूंगा कि मैंने इस पूरे लेख में किसी स्टार का नाम नहीं लिया है और ना ही लूंगा इसकी वजह ये है कि मैं किसी भी स्टार के चाहने वालों को आहत नहीं करना चाहता ..लेकिन भइया.. जब इन लोगों को हैसियत छोड़कर औकात पर उतरते देखता हूं तो कष्ट होता है.. ऐसा लगता है कि इन लोगों को इस बात से कोई मतलब ही नहीं कि इनको स्टार बनाने वाली जनता है औऱ जनता की नजरों में गिरने के बाद इनको पूछनेवाला कोई नहीं होगा। ....ये पूरा लेख अधूरा रह जाएगा अगर मैंने यहां इस बात का जिक्र नहीं किया कि कमाई की दौड़ में इज्जत आबरू रण में छोड़ सरपट दौड़ रहे इन सुपरस्टारों में कई ऐसे भी हैं जिन्होंने अभी ओछेपन की चादर नहीं ओढ़ी है और इस दास्तान-ए- छीछालेदर से दूर अपने काम में पूरी संजीदगी से जुटे है.. (वैसे ये भी गौर करने वाली बात है कि इनमें से कई ऐसे भी हो सकते हैं जो अभी इतने बड़े स्टार नहीं बने कि दास्तान-ए-छीछालेदर कर सके)..
आपका हमसफर
दीपक नरेश
बुधवार, 14 मई 2008
एक अनछुई कविता.....
दोस्तों, आज बात हिंदी कविता की....हिंदी कविताओं की दुनिया में ऐसी तमाम चीजे हैं जिनका जिक्र बेहद जरूरी होते हुए भी कम ही हुआ है...दरअसल जब कभी लीक से हटकर कोई काम हुआ तो उसको बने-बनाए ढर्रे पर ही तोला गया और अगर किसी रचनाकार के अंदाज से वो कविता मेल नहीं खाई तो उसका जिक्र अलग से करने की जहमत नही उठाई गई...एक ऐसी ही कविता.....
छंद बंध ध्रुव तोड़फोड़ कर पर्वत कारा,
अचल रूढ़ियों सी कवि तेरी कविता धारा,
मुक्त अबाध अमंद रजत निर्झर सी निसृत,
गलित ललित आलोक राशि चिर अकुलिष अविजित,
स्फटिक शिलाओं से वाणी का तूने मंदिर,
शिल्पि बनाया ज्योतिकलश निज यश का घर चिर,
अमृत पुत्र कवि यशाकाय तव जरा मरण चित,
स्वंय भारती से तेरी ह्रतंत्री झंकृत.....
ये कविता इस मायने मे दुर्लभ है कि इसे लिखने वाले ने अपने जीवन में इसके अळावा कोई दूसरी इतनी क्लिष्ट कविता नहीं लिखी.. हिंदी कविता को जानने समझने वालों को पहली नजर में ये निराला की कविता लगेगी..वैसे इसका ताल्लुक निराला से है मगर इसे उन्होंने लिखा नहीं है बल्कि ये उनके लिए लिखी गई थी..औऱ इसे लिखने वाले थे राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त (मेरी जानकारी में ये गुप्त जी की ही कविता है.. अगर कोई मित्र इस रचना को किसी और कवि का होने की जानकारी रखता है तो जरूर बताए.) ....इस कविता में छंदों और संस्कृतनिष्ठ शब्दों का जितना बेहतरीन इस्तेमाल हुआ है वो निराला और प्रसाद के रचनालोक से बाहर कम ही देखने को मिला है। निराला के निराला अंदाज में कविताई की क्या वजह थी ये तो मैं नहीं जानता (किसी ब्लॉगर भाई को पता तो ये जानकारी भी मुहैया करवाने का कष्ट जरूर करें) मगर दिलचस्प बात ये है कि गुप्त जी की कविताओं का जब-जब जिक्र हुआ है ये कविता हमेशा नदारद रही है..
आपका हमसफर
दीपक नरेश
मंगलवार, 13 मई 2008
कुछ भूले बिसरे लोग..
पं राधेश्याम जी का जन्म बरेली के परम भागवत पंडित बांके लालजी के पुत्र के रूप में 25 नवंबर 1890 को हुआ था उनके पिता ने उन्हें गायन औऱ धार्मिक पदों की रचना करने के लिए हमेशा प्रोत्साहित किया. रामचरितमानस उनका सबसे पसंदीदा ग्रंथ था लिहाजा उन्होंने रामकथा के ही काव्यमय लेखन करने का फैसला किया.. जब उनकी राधेश्याम रामायणी तैयार हुई तो फिर उसे लोगों तक पहुंचने औऱ लोकप्रिय होने में देर नहीं लगी. पंडितजी की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उस दौर की सबसे मशहूर नाटक कंपनी न्यू अल्फ्रेड ने भी पंडितजी के कई नाटकों का मंचन करने का फैसला किया, कहना ना होगा कि उनकी राधेश्याम रामायणी की तरह उनके नाटक भी काफी लोकप्रिय हुए..
बरसों पहले गांव में रामलीला देखने के दौरान सुनी हुई राधेश्याम रामायणी की चंद पंक्तियां..ये प्रसंग है शूर्पनखा औऱ रावण के बीच संवाद का..जब शूर्पनखा ने नाक काटे जाने पर रावण से जाकर दुखड़ा रोया था..
हे भाई दो लड़के राम-लखन
इस दंडक वन में आए हैं..
सीता सुकुमारी नारी को
अपने ही संग में लाए हैं..
बांके औऱ वीर लड़ाके हैं..
गोय़ा शमशीर उन्हीं की है
वो पंचवटी में रहते हैं..
मानों जागीर उन्ही की है..
नागाह उधर से निकल पड़ी..
उस नारी से मिलना चाहा..
बदले में निगोड़े लक्ष्मण ने.
उससे कुछ छल करना चाहा..
जब मैंने तेरा नाम लिया..
सुनते ही उसने दी गाली..
औ' मेरे कान काट लाए
औऱ मेरी नाक काट डाली...
दोस्तों..मौका लगे तो इसे पढ़िए,.राधेश्याम प्रेस बरेली ने राधेश्याम रामायणी का प्रकाशन भी किया है...काफी दिलचस्प अनुभव रहेगा ।
आपका हमसफर
दीपक नरेश
जयपुर में आतंकवादी ब्लास्ट
आपका हमसफर,
दीपक नरेश
गुरुवार, 8 मई 2008
मेरी पसंद
नफरत ही वो करता जो ना करता वो मोहब्बत,
वो शख्स किसी बात पे तैयार तो होता,
पढ़कर जिसे बेखौफ मैं एक बार तो होता,
ऐसा भी किसी रोज का अखबार तो होता ।
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मैदां में हार जीत तो किस्मत की बात ,है
टूटी है किसके हाथ में तलवार देखना,
हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी,
जिसको भी देखना हो कई बार देखना ।
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वक्त ने मेरे बालों में चांदी भर दी,
इधर-उधर आने-जाने की आदत कम कर दी,
आइना ठीक ही कहता है ,
एक जैसा चेहरा-मोहरा किसका रहता है,
इसी बदलते वक्त सहरा में लेकिन,
कहीं किसी घर में ,
एक लड़की ऐसी है,
बरसों पहले जैसी दिखती थी ,
अब भी बिल्कुल वैसी है
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परिंदों को मिलेगी मंज़िल, ये फैले हुए उनके पर बोलते हैं
वही लोग खामोश रहते हैं अक्सर, जमाने में जिनके हुनर बोलते हैं
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मैं दुनिया के मेयार पर नहीं उतरा
दुनिया मेरे मेयार पर नहीं उतरी
मैं झूठ के दरबार में सच बोल रहा हूं
हैरत है सर मेरा कलम नहीं होता
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ऊंची इमारतों से घिर गया मेरा मकां
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए
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आपका हमसफर
दीपक नरेश
हमारी विरासत
आज बात मासूमियत को हर्फों की जुबां देने की कुछ नायाब कोशिशों की.. हिंदी साहित्य में केवल निराला का नाम इस बात के लिए काफी फक्र से लिया जाता है कि बेटी की असमय मौत पर लिखी गई शोक कविता 'सरोज स्मृति' में जो कुछ उन्होंने लिख दिया वैसा ना तो कभी उनके पहले लिखा गया ना ही उनके बाद.. विश्व साहित्य में शायद ये सबसे पहली औऱ आखिरी कविता है जिसमें एक पिता ने अपनी बेटी के लिए अपने एहसास को शब्दों में पिरोया है...एक बानगी
श्रृंगार रहा जो निराकार,
रस कविता की उच्छवसित धार,
गाया स्वर्गीया प्रिया संग,
भरता प्राणों में राग रंग..
रति रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदलकर बना मही,
लेकिन उर्दू साहित्य में भी एक शायर ऐसे हैं जिसने अपनी बेटी की मासूमियत को जुबां देने की एक खूबसूरत कोशिश की है और ये शायर हैं जनाब निदा फाजली...
( अपनी बेटी तहरीर के लिए)
वो आई,
और उसने मुस्कुरा के,
मेरी बढ़ती उम्र के,
सारे पुराने,
जाने-पहचाने बरस,
पहले हवाओं में उडा़ए,
और फिर,
मेरी ज़बाँ के सारे लफ़्ज़ों को,
ग़ज़ल को,
गीत को,
दोहों को,
नज़मों को,
खुली खिड़की के बाहर फेंक कर,
यूँ खिलखिलाई,
कलम ने मेज़ पर लेटे ही लेटे,
आँख मिचकाई,
म्याऊँ करके कूदी,
बंद शीशी में पडी़ स्याही,
उठा के हाथ दोनो चाय के कप ने ली,
अंगडा़ई,
छ्लाँगे मार के हंसने लगी,
बरसों की तन्हाई,
अचानक मेरे होठों पर,
इशारों और बेमानी सदाओं की,
वही भाषा उभर आई,
जिसे लिखता है सूरज,
जिसे पढ़ता है दर्या,
जिसे सुनता है सब्ज़ा,
जिसे सदियों से बादल बोलता है,
और हर धरती समझती है,
हालांकि आमतौर पर ऐसी कोशिशों का अलग से कोई जिक्र नहीं होता लेकिन दोनों ही रचनाएं हमारी माटी की देन हैं ये सोचकर काफी सुकून मिलता है..
दरअसल गौर से देखें तो हिंदोस्तानी साहित्य में ऐसी तमाम नायाब कोशिशें बिखरी पड़ी हैं बस जरूरत है उनको ढ़ूंढकर उनकी खासियत को अलग से पहचान देने की..
आपका हमसफर
दीपक नरेश
बुधवार, 7 मई 2008
जिंदा रहने की दिक्कत
आपका हमसफर
दीपक नरेश
मंगलवार, 6 मई 2008
मेरी पसंद
अली सरदार जाफरी साहेब की रचना...
फिर इक दिन ऐसा आयेगा,
आँखों के दिये बुझ जाएँगे..
हाथों के कवँल कुम्हलाएँगे,
और बर्गे-ज़बाँ से नुक्तो सदा
की हर तितली उड़ जाएगी..
इक काले समन्दर की तह में.
कलियों की तरह से खिलती हुई.
फूलों की तरह से हँसती हुई.
सारी शक्लें खो जाएँगी,
ख़ूँ की गर्दिश,
दिल की धड़कन,
सब रागनियाँ सो जाएँगी,
और नीली फ़ज़ा की मख़मल पर,
हँसती हुई हीरे की ये कनी,
ये मेरी जन्नत, मेरी ज़मी,
इसकी सुबहें, इसकी शामें,
बे-जाने हुए, बे-समझे हुए,
इक मुश्ते-गु़बारे-इंसा पर,
शबनम की तरह रो जाएँगी,
यादों के हँसी बुतखा़ने से.
हर चीज़ भुला दी जाएगी..
फिर कोई नहीं ये पूछेगा..
सरदार कहाँ है महफ़िल में,
---
लेकिन मै यहाँ फिर आऊँगा,
बच्चों के दहन से बोलूँगा,
चिड़ियों की ज़बां से गाउंगा,
जब बीज हँसेंगे धरती में,
और कोंपलें अपनी उँगली से,
मिट्टी की तहों को छेड़ेंगी,
मै पत्ती-पत्ती, कली-कली,
अपनी आँखें फिर खोलूँगा,
सरसब्ज़ हथेली पर लेकर,
शबनम के क़तरे तोलूँगा,
मैं रंगे-हिना, आहंगे-ग़ज़ल,
अन्दाज़े-सुख़न बन जाऊँगा,
रुख़्सारे-उरूसे-नौ की तरह,
हर आँचल से छन जाऊँगा,
जाड़ों की हवाएँ दामन में..
जब फ़स्ले-ख़िज़ाँ को लाएँगी,
रहरौ के जवाँ क़दमों के तले,
सूखे हुए पत्तों से मेरे..
हँसने की सदाएँ आएँगी..
और सारा ज़माना देखेगा..
हर कि़स्सा मेरा अफ़साना है..
हर आशिक़ है ’सरदार" यहाँ,
हर माशूका ’सुलताना’ है
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मैं एक गुरेज़ाँ लम्हा
अय्याम के अफ़्सूँ-ख़ाने में
मै एक तड़पता क़तरा हूँ
मसरूफ़े-सफ़र जो रह्ता है
माज़ी की सुराही के दिल से
मुस्तक़बिल के पैमाने में
मै सोता हूँ और जागता हूँ
और जाग के फिर सो जाता हूँ
सदियों का पुराना खेल हूँ मैं
मैं मर के अमर हो जाता हूँ
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नुक़्तो-सदा= अभिव्यक्ति, दहन=मुँह, फ़स्ले-ख़िज़ां= पतझड़ की फ़सल , मसरूफ़े-सफ़र= यात्रा में व्यस्त, सुलताना=कवि की पत्नी
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अली सरदार जाफरी साहेब मेरे पसंदीदा शायरों में से एक है उसकी शायद एक वजह ये भी है कि जाफरी साहब मेरे शहर बलरामपुर की पैदाइश है और उनके परिवार के लोगों से मुझे मिलने औऱ उनके बारे में जानने समझने का मौका मिला...ये उनकी रूहानी शख्सियत का ही असर रहा कि इस शहर में आज भी उर्दू शायरी की एक भरी पूरी परपंरा मौजूद है.. आज भी जब मैं अपने शहर जाता हूं तो एक खुशनुमा एहसास से भर जाता हूं.. बेकल उत्साही औऱ बाबू हरिशंकर 'खिज्र' जैसे नाम जो किसी पहचान के मोहताज नहीं (बाबू हरिशंकर जी पेशे से अध्यापक हैं औऱ रिटायरमेंट के बाद लंबे वक्त तक उर्दू और अंग्रेजी के ट्यूशन देते रहे, ) स्कूल के दिनों में मुझे भी उनका शिष्य बनने का मौका मिला.. और शायद वही वो वक्त था जब मुझमें हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी की महान साहित्य परंपरा को जानने कि दिलचस्पी पैदा हुई। बाद के दिनों में अली सरदार जाफरी साहेब के भतीजे अब्बास जाफरी साहेब ने मुझे कॉलेज में पढ़ाया.. फैज अहमद फैज की एक नज्म जो मैंने उनके सुनी थी और आज तक मुझे याद है..दरअसल हम कौमी एकता पर बात कर रहे थे और वो हमें नजीर बनारसी और फैज अहमद फैज की रचनाओं के जरिए ये बताने की कोशिश कर रहे थे कि जिस वक्त हिंदुस्तान का इतिहास करवट ले रहा था उस दौर में भी तमाम लोग इंसानी तहजीब औऱ सुलहकुल को मुसलसल बनाए रखने के लिए शब्दों की लड़ाई लड़ रहे थे और अपनी नाराजगी का इजहार कर रहे थे ......
-फैज अहमद फैज की रचना---
सच कह दूं एक बराहमिन,
गर तू बुरा ना माने,
तेरे सनम कदों के,
बुत हो गए पुराने,
आपस में बैर रखना,
तूने बुतों से सीखा,
जंगे-जदल सिखाया,
वाइज़ को भी ख़ुदा ने...
और नज़ीर बनारसी का वो शेर जो उन्होंने दंगों की विभीषिका से निपटने के दौर में कहा था..
हिंदुओं को तो यकीं है कि मुसलमान है नज़ीर
कुछ मुसलमां है जिन्हें शक है कि हिंदू तो नहीं.
जाफरी साहेब की एक पीढ़ी तो मुंबई जा कर बस गई मगर अब भी उनके परिवार में कई लोग ऐसे हैं जिनका उर्दू शायरी से नाता उतना ही गहरा है..जाफरी साहेब की इस परंपरा में एक नाम बेकल उत्साही का भी है जो एक दौर में बेहद मशूहर हुए और राज्यसभा के सांसद भी रहे.. लेकिन आज भी जब अपने शहर मे एक आम आदमी की तरह उन्हें रिक्शे पर बैठकर बाजार जाते देखता हूं तो बेहद फक्र महसूस होता है कि जिंदगी की तल्ख सच्चाईयों के बीच दूसरों के दुख दर्द और जज्बात को जुबां देने वाले इन शानदार लोगों को करीब से देखने और जानने का मौका मिला.. एक डॉक्यूमेंट्री बनाने के दौरान मैंने उनके साथ कुछ वक्त गुजारा तो पता चला कि बाजारीकरण के इस दौर में देश में भले ही उनकी कद्र ना हो रही हो पर दुनियाभर के तमाम विश्वविद्यालयों में उनके काम और शख्सियत पर शोध किए जा रहे हैं.. बेकल साहेब का एक शेर जो मुझे बेहद पसंद है..
अब ना गेंहू ना धान बोते हैं अपनी किस्मत किसान बोते हैं
फसल तहसील काट लेती है, हम मुसलसल लगान बोते हैं..
अजीब लगता है ये देखकर कि दुनिया इतनी बदल चुकी है.. फिर भी अपनी विरासत को सहेजने का सलीका और सोच हम लोगों में अबतक पैदा नहीं हो पायी..
आपका हमसफर,
दीपक नरेश
रविवार, 4 मई 2008
स्वागत है आपका
आपका हमसफर
दीपक नरेश
ब्लॉग पर लिखने का तरीका
आपका हमसफर
दीपक नरेश
आपका स्वागत है
दोस्तों ब्लॉग के लेआउट में कुछ तब्दीलियां की गई हैं.. कुछ मित्रों की सलाह पर ये फेरबदल किए गए हैं. लखनऊ से मनीष भाई और पूना से आशुतोष ने ये सलाह दी ,उम्मीद है ये बदलाव आप लोगों को पसंद आएगा..जरूरी तब्दीलियों के लिए आपके मशविरे का हमेशा इंतजार रहेगा...कुछ पुराने मित्रों को ब्लॉग पर सीधे लिखने के अधिकार दे दिए गए हैं. दिल्ली में गिरिजेश भाई. परमेंद्र जी, पंकज भगत जो आज से ही ब्लॉग से जुड़ें है (सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं.. और काफी जेहादी तेवर वाले मगर नेकदिल इंसान है।).. डॉक्टर ज्ञानेंद्र मौलाना आजाद डेंटल हॉस्पिटल दिल्ली में डॉक्टर हैं औऱ अपने विषय की जानकारियों के साथ थोड़े वक्त में हमारे साथ जुड़ जाएंगे...डॉक्टर विवेक सर गंगाराम अस्पताल में प्लास्टिक सर्जन हैं.. पुराने दोस्त है. उनको भी न्योता भेजा गया है मगर अबतक उनका जवाब नहीं आया है.. उम्मीद है वो भी जल्द ही इस महफिल को रोशन करने आ पहुंचेंगे....ये सभी लोग अपनी सुविधानुसार ब्लॉग पर परिचर्चा और जरूरी जानकारियों, सूचनाओं की बौछार करते रहेंगे.. गिरिजेश भाई की कहानी का बेसब्री से इंतजार है.. लखनऊ से राहुल भाई ने खबर दी है कि वो इंटर कॉलेज में अध्यापक हो गए हैं और चंद रोज में नवाबंगज उन्नाव के एक इंटर कॉलेज मे ज्वाइन करने वाले हैं... राहुल भाई के बारे में तो आप जानते ही हैं.. युवा पीढ़ी के जोरदार कवि हैं इनका फलसफा है कि दुनिया में खुशनसीब वही है जिसे मनमाफिक नौकरी और मनपसंद बीवी मिल जाए..राहुल भाई मनमाफिक नौकरी मिलने पर आप को ढेरों बधाइयां.. उम्मीद है मनपसंद जीवनसंगिनी भी जल्दी ही आपकी जिंदगी में लैंड करेगी......ये सभी मित्रगण अपने लेखों, कविताओं के साथ राजा बनारस की महफिल को गुलजार करते रहेंगे. बस आप यूं ही अपनी शुभकामनाओं का गुलदस्ता हमें भेजते रहिए...
आपका हमसफर
दीपक नरेश
शुक्रवार, 2 मई 2008
असली चेहरा, नकली लोग
उनकी रग-रग से वाकिफ हैं हम..
वो कमजोर और कायर हैं...
डरपोक है दिमाग है उनका..
इसलिए हर दिमागदार से
खौफ खाते हैं वो..
उनकी कोशिशें उनकी हताशा का सबूत है..
उनकी चालों में बू है..
क्योंकि सामने से भिड़ने का साहस वो नहीं रखते
असलियत के आइने में अपनी शक्ल नहीं देख सकते..
(क्योंकि सच से रूबरू होना आसान नहीं होता)
......
बिखरे हैं हमारे आस--पास ऐसे ढेरों चेहरे..
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जिनकी आत्मा बेईमानी और मक्कारी की मोहताज बन चुकी है
...
उनको माफ करना ऊपरवाले..
क्योंकि उनकी मौजूदगी ऐसी ही है..
मानो किसी साफ-सुथरी कालोनी के पिछवाड़े
फैले हुए मलबे के ढेर.....
गुरुवार, 1 मई 2008
यही सच है
जब कोई कुकहाते,
लार टपकाते,
सामने से चला आए
तो समझदार को चाहिए कि
वो डर जाए
और इस आंशका से भर जाए
कि कहीं वो उससे
प्रतिस्पर्धा ना कर जाए