बुधवार, 14 मई 2008

एक अनछुई कविता.....


दोस्तों, आज बात हिंदी कविता की....हिंदी कविताओं की दुनिया में ऐसी तमाम चीजे हैं जिनका जिक्र बेहद जरूरी होते हुए भी कम ही हुआ है...दरअसल जब कभी लीक से हटकर कोई काम हुआ तो उसको बने-बनाए ढर्रे पर ही तोला गया और अगर किसी रचनाकार के अंदाज से वो कविता मेल नहीं खाई तो उसका जिक्र अलग से करने की जहमत नही उठाई गई...एक ऐसी ही कविता.....

छंद बंध ध्रुव तोड़फोड़ कर पर्वत कारा,
अचल रूढ़ियों सी कवि तेरी कविता धारा,
मुक्त अबाध अमंद रजत निर्झर सी निसृत,
गलित ललित आलोक राशि चिर अकुलिष अविजित,
स्फटिक शिलाओं से वाणी का तूने मंदिर,
शिल्पि बनाया ज्योतिकलश निज यश का घर चिर,
अमृत पुत्र कवि यशाकाय तव जरा मरण चित,
स्वंय भारती से तेरी ह्रतंत्री झंकृत.....

ये कविता इस मायने मे दुर्लभ है कि इसे लिखने वाले ने अपने जीवन में इसके अळावा कोई दूसरी इतनी क्लिष्ट कविता नहीं लिखी.. हिंदी कविता को जानने समझने वालों को पहली नजर में ये निराला की कविता लगेगी..वैसे इसका ताल्लुक निराला से है मगर इसे उन्होंने लिखा नहीं है बल्कि ये उनके लिए लिखी गई थी..औऱ इसे लिखने वाले थे राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त (मेरी जानकारी में ये गुप्त जी की ही कविता है.. अगर कोई मित्र इस रचना को किसी और कवि का होने की जानकारी रखता है तो जरूर बताए.) ....इस कविता में छंदों और संस्कृतनिष्ठ शब्दों का जितना बेहतरीन इस्तेमाल हुआ है वो निराला और प्रसाद के रचनालोक से बाहर कम ही देखने को मिला है। निराला के निराला अंदाज में कविताई की क्या वजह थी ये तो मैं नहीं जानता (किसी ब्लॉगर भाई को पता तो ये जानकारी भी मुहैया करवाने का कष्ट जरूर करें) मगर दिलचस्प बात ये है कि गुप्त जी की कविताओं का जब-जब जिक्र हुआ है ये कविता हमेशा नदारद रही है..

आपका हमसफर

दीपक नरेश

2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बड़ी ही अद्भुत चीज खोज कर लाये हैं, आभार!

Unknown ने कहा…

बहोत अच्छी रचना। इसका अर्थ विश्लेषण विस्तार से लिखा मिल गया तो और भी अच्छा होगा। धन्यवाद।