शनिवार, 31 मई 2008

ये काम नहीं आसां..बस इतना समझ लीजे.....



नेता ही किसी देश की तकदीर संवार सकते हैं..औऱ नेताओं की मौजूदगी से ही लोकतंत्र संवर-निखर सकता है..नेता माने नेतृत्व माने देश का विकास..माने सब का कल्याण...माने ब्ला-ब्ला.. अद्भुत संकल्पना..भारत जैसे महादेश के संविधान में ना लिखी गई एक सच्चाई...मगर जो संविधान के हर हिस्से में पैबस्त है..नेताओं की खामोश मौजूदगी. वो बात अलग है कि नेता शब्द की जो परिभाषा और पहचान बताई गई थी उसमे आमूल-चूल परिवर्तन हो चुका है.. नेता अब ने..टा हो चुके हैं...कार्पोरेट समाज में कार्पोरेट नेटा मौजूद हैं....वो हाईटेक हैं..उनको पढ़े लिखे लोगों की जाहिलियत का अंदाज लगाने का हुनर आ गया है..वो सर्व विद्यमान टाइप का माहौल बनाने में भी महारत हासिल कर चुके हैं..एक ही वक्त पर वो किसी टीवी शो में. इंटरव्यू में. नाइट पार्टी में. और किसी जली हुई बस्ती का मुआयना करते नजर आ सकते हैं... कई तो ये भी भूल चुके हैं कि वो निरक्षर से थोड़े ही ज्यादा साक्षर हैं...वो नित नए नए हुनर सीख रहे हैं..जनता के सेवक ये नेटा..अब अपनी कीमत का अंदाजा लगा चुके हैं औऱ खुद की नेटाई को बनाए रखने के लिए लोगों की औकात आंकने में भी गलती नहीं करते....लेकिन नेटा अभी ग्लोबल नहीं हो पाए हैं..कई नेताओं का ये दर्द गाहे-बगाहे दिख जाता है.. अभी मेरे एक पत्रकार मित्र ने मुझे एक दिलचस्प वाकया सुनाया,..उनके एक नेता से थोड़ा दोस्ताना ताल्लुकात हैं नेता जी अकसर अपनी पहुंच और अपने रसूख के किस्से मेरे पत्रकार मित्र को सुनाते रहते हैं...वैसे ये सच भी है.प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी में उनकी खासी हनक है..एक डेलिगेशन का सदस्य बनकर नेता जी हाल ही में लंदन गए थे.. वहां दस दिन बिताकर जब वो वापस लौटे तो मुंह उतरा हुआ था.. मित्र ने हाल पूछा तो उनका दर्द छलक आया.. बोले बंधु मैं अभी लंदन में रह कर आया हूं लेकिन वहां रहने के बाद मुझे एहसास हुआ कि हम लोग कितने उम्दा किस्म के जाहिल और गंवार हैं...मित्र के बहुत कुरेदने पर बोले कि.. यार जब मैं हवाई जहाज मे चढ़ रहा था तो मेरा अंदाज ऐसा था मानो गांव वाली बस पर चढ़ रहा हूं..साला..प्लेन के दरवाजे पर पहुंचते ही हाथ अपने आप बस के दरवाजे पर लगे हत्थे को पकड़ने के लिए उठ गया. वहां खड़ी मोहतरमा ने अगर खुद को संभाला ना होता तो साला पिट ही जाता... लंदन पहुंचा तो हर वक्त दतून करने की ही तलब लगी रहती थी...खाना खाते वक्त ऐसा लगता था मानो आज दातून कुल्ला किया ही नहीं..ऊपर से सेमिनार और मीटिंग्स में भी बैठते थे तो ऐसा लगता था मानो किसी बाबा के प्रवचन सत्संग में शिरकत कर रहे हैं... दिमागी तौर पर जाहिल हैं भाई साहेब ऐसे में मंत्री कैसे बन पाएंगे..मेरा पत्रकार मित्र जो बेचारा बड़ी मासूमियत से सुन रहा था.. बोला निराश क्यों होते हैं नेता जी आप जैसे ही तो एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देखते हैं और सच तो ये है कि आप में ऐब हैं तो आप को दिख रहा है...औऱ यही तो सुधारना है..खुद सुधार लीजिएगा तो बेहतर नहीं तो जनता सुधारती रहेगी..हर साल इलेक्शन में...मित्र की बात नेता जी के पल्ले नहीं पड़ी वो बेचारे गुद्दी ही खुजाते रह गए...लेकिन दिल की भड़ास निकालने के बाद की राहत जरूर उनके चेहरे पर नजर आ रही थी..
तो दोस्तों ये तस्वीर है उस सच्चाई की जिसे हमारे देश के नेटा ग्लोबल होने की कोशिश में झेल रहे हैं...हो सके तो उनका दर्द दूर करने में कुछ कल्चरल सहयोग देने की कोशिश कीजिए...

आपका हमसफर
दीपक नरेश

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