मंगलवार, 6 मई 2008

मेरी पसंद

अली सरदार जाफरी साहेब की रचना...

फिर इक दिन ऐसा आयेगा,

आँखों के दिये बुझ जाएँगे..

हाथों के कवँल कुम्हलाएँगे,

और बर्गे-ज़बाँ से नुक्तो सदा

की हर तितली उड़ जाएगी..

इक काले समन्दर की तह में.

कलियों की तरह से खिलती हुई.

फूलों की तरह से हँसती हुई.

सारी शक्लें खो जाएँगी,

ख़ूँ की गर्दिश,

दिल की धड़कन,

सब रागनियाँ सो जाएँगी,

और नीली फ़ज़ा की मख़मल पर,

हँसती हुई हीरे की ये कनी,

ये मेरी जन्नत, मेरी ज़मी,

इसकी सुबहें, इसकी शामें,

बे-जाने हुए, बे-समझे हुए,

इक मुश्ते-गु़बारे-इंसा पर,

शबनम की तरह रो जाएँगी,

यादों के हँसी बुतखा़ने से.

हर चीज़ भुला दी जाएगी..

फिर कोई नहीं ये पूछेगा..

सरदार कहाँ है महफ़िल में,

---

लेकिन मै यहाँ फिर आऊँगा,

बच्चों के दहन से बोलूँगा,

चिड़ियों की ज़बां से गाउंगा,

जब बीज हँसेंगे धरती में,

और कोंपलें अपनी उँगली से,

मिट्टी की तहों को छेड़ेंगी,

मै पत्ती-पत्ती, कली-कली,

अपनी आँखें फिर खोलूँगा,

सरसब्ज़ हथेली पर लेकर,

शबनम के क़तरे तोलूँगा,

मैं रंगे-हिना, आहंगे-ग़ज़ल,

अन्दाज़े-सुख़न बन जाऊँगा,

रुख़्सारे-उरूसे-नौ की तरह,

हर आँचल से छन जाऊँगा,

जाड़ों की हवाएँ दामन में..

जब फ़स्ले-ख़िज़ाँ को लाएँगी,

रहरौ के जवाँ क़दमों के तले,

सूखे हुए पत्तों से मेरे..

हँसने की सदाएँ आएँगी..

और सारा ज़माना देखेगा..

हर कि़स्सा मेरा अफ़साना है..

हर आशिक़ है ’सरदार" यहाँ,

हर माशूका ’सुलताना’ है

--

मैं एक गुरेज़ाँ लम्हा

अय्याम के अफ़्सूँ-ख़ाने में

मै एक तड़पता क़तरा हूँ

मसरूफ़े-सफ़र जो रह्ता है

माज़ी की सुराही के दिल से

मुस्तक़बिल के पैमाने में

मै सोता हूँ और जागता हूँ

और जाग के फिर सो जाता हूँ

सदियों का पुराना खेल हूँ मैं

मैं मर के अमर हो जाता हूँ

---

नुक़्तो-सदा= अभिव्यक्ति, दहन=मुँह, फ़स्ले-ख़िज़ां= पतझड़ की फ़सल , मसरूफ़े-सफ़र= यात्रा में व्यस्त, सुलताना=कवि की पत्नी

-----

अली सरदार जाफरी साहेब मेरे पसंदीदा शायरों में से एक है उसकी शायद एक वजह ये भी है कि जाफरी साहब मेरे शहर बलरामपुर की पैदाइश है और उनके परिवार के लोगों से मुझे मिलने औऱ उनके बारे में जानने समझने का मौका मिला...ये उनकी रूहानी शख्सियत का ही असर रहा कि इस शहर में आज भी उर्दू शायरी की एक भरी पूरी परपंरा मौजूद है.. आज भी जब मैं अपने शहर जाता हूं तो एक खुशनुमा एहसास से भर जाता हूं.. बेकल उत्साही औऱ बाबू हरिशंकर 'खिज्र' जैसे नाम जो किसी पहचान के मोहताज नहीं (बाबू हरिशंकर जी पेशे से अध्यापक हैं औऱ रिटायरमेंट के बाद लंबे वक्त तक उर्दू और अंग्रेजी के ट्यूशन देते रहे, ) स्कूल के दिनों में मुझे भी उनका शिष्य बनने का मौका मिला.. और शायद वही वो वक्त था जब मुझमें हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी की महान साहित्य परंपरा को जानने कि दिलचस्पी पैदा हुई। बाद के दिनों में अली सरदार जाफरी साहेब के भतीजे अब्बास जाफरी साहेब ने मुझे कॉलेज में पढ़ाया.. फैज अहमद फैज की एक नज्म जो मैंने उनके सुनी थी और आज तक मुझे याद है..दरअसल हम कौमी एकता पर बात कर रहे थे और वो हमें नजीर बनारसी और फैज अहमद फैज की रचनाओं के जरिए ये बताने की कोशिश कर रहे थे कि जिस वक्त हिंदुस्तान का इतिहास करवट ले रहा था उस दौर में भी तमाम लोग इंसानी तहजीब औऱ सुलहकुल को मुसलसल बनाए रखने के लिए शब्दों की लड़ाई लड़ रहे थे और अपनी नाराजगी का इजहार कर रहे थे ......


-फैज अहमद फैज की रचना---


सच कह दूं एक बराहमिन,
गर तू बुरा ना माने,
तेरे सनम कदों के,
बुत हो गए पुराने,
आपस में बैर रखना,
तूने बुतों से सीखा,
जंगे-जदल सिखाया,
वाइज़ को भी ख़ुदा ने...


और नज़ीर बनारसी का वो शेर जो उन्होंने दंगों की विभीषिका से निपटने के दौर में कहा था..


हिंदुओं को तो यकीं है कि मुसलमान है नज़ीर
कुछ मुसलमां है जिन्हें शक है कि हिंदू तो नहीं.


जाफरी साहेब की एक पीढ़ी तो मुंबई जा कर बस गई मगर अब भी उनके परिवार में कई लोग ऐसे हैं जिनका उर्दू शायरी से नाता उतना ही गहरा है..जाफरी साहेब की इस परंपरा में एक नाम बेकल उत्साही का भी है जो एक दौर में बेहद मशूहर हुए और राज्यसभा के सांसद भी रहे.. लेकिन आज भी जब अपने शहर मे एक आम आदमी की तरह उन्हें रिक्शे पर बैठकर बाजार जाते देखता हूं तो बेहद फक्र महसूस होता है कि जिंदगी की तल्ख सच्चाईयों के बीच दूसरों के दुख दर्द और जज्बात को जुबां देने वाले इन शानदार लोगों को करीब से देखने और जानने का मौका मिला.. एक डॉक्यूमेंट्री बनाने के दौरान मैंने उनके साथ कुछ वक्त गुजारा तो पता चला कि बाजारीकरण के इस दौर में देश में भले ही उनकी कद्र ना हो रही हो पर दुनियाभर के तमाम विश्वविद्यालयों में उनके काम और शख्सियत पर शोध किए जा रहे हैं.. बेकल साहेब का एक शेर जो मुझे बेहद पसंद है..


अब ना गेंहू ना धान बोते हैं अपनी किस्मत किसान बोते हैं
फसल तहसील काट लेती है, हम मुसलसल लगान बोते हैं..


अजीब लगता है ये देखकर कि दुनिया इतनी बदल चुकी है.. फिर भी अपनी विरासत को सहेजने का सलीका और सोच हम लोगों में अबतक पैदा नहीं हो पायी..
आपका हमसफर,
दीपक नरेश

2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत उम्दा काम किया आपने इन्हें यहाँ सहेज कर, बहुत आभार.

राजीव रंजन प्रसाद ने कहा…

बेहतरीन रचनायें पढवाने का आभार..

***राजीव रंजन प्रसाद