आज बात मासूमियत को हर्फों की जुबां देने की कुछ नायाब कोशिशों की.. हिंदी साहित्य में केवल निराला का नाम इस बात के लिए काफी फक्र से लिया जाता है कि बेटी की असमय मौत पर लिखी गई शोक कविता 'सरोज स्मृति' में जो कुछ उन्होंने लिख दिया वैसा ना तो कभी उनके पहले लिखा गया ना ही उनके बाद.. विश्व साहित्य में शायद ये सबसे पहली औऱ आखिरी कविता है जिसमें एक पिता ने अपनी बेटी के लिए अपने एहसास को शब्दों में पिरोया है...एक बानगी
श्रृंगार रहा जो निराकार,
रस कविता की उच्छवसित धार,
गाया स्वर्गीया प्रिया संग,
भरता प्राणों में राग रंग..
रति रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदलकर बना मही,
लेकिन उर्दू साहित्य में भी एक शायर ऐसे हैं जिसने अपनी बेटी की मासूमियत को जुबां देने की एक खूबसूरत कोशिश की है और ये शायर हैं जनाब निदा फाजली...
( अपनी बेटी तहरीर के लिए)
वो आई,
और उसने मुस्कुरा के,
मेरी बढ़ती उम्र के,
सारे पुराने,
जाने-पहचाने बरस,
पहले हवाओं में उडा़ए,
और फिर,
मेरी ज़बाँ के सारे लफ़्ज़ों को,
ग़ज़ल को,
गीत को,
दोहों को,
नज़मों को,
खुली खिड़की के बाहर फेंक कर,
यूँ खिलखिलाई,
कलम ने मेज़ पर लेटे ही लेटे,
आँख मिचकाई,
म्याऊँ करके कूदी,
बंद शीशी में पडी़ स्याही,
उठा के हाथ दोनो चाय के कप ने ली,
अंगडा़ई,
छ्लाँगे मार के हंसने लगी,
बरसों की तन्हाई,
अचानक मेरे होठों पर,
इशारों और बेमानी सदाओं की,
वही भाषा उभर आई,
जिसे लिखता है सूरज,
जिसे पढ़ता है दर्या,
जिसे सुनता है सब्ज़ा,
जिसे सदियों से बादल बोलता है,
और हर धरती समझती है,
हालांकि आमतौर पर ऐसी कोशिशों का अलग से कोई जिक्र नहीं होता लेकिन दोनों ही रचनाएं हमारी माटी की देन हैं ये सोचकर काफी सुकून मिलता है..
दरअसल गौर से देखें तो हिंदोस्तानी साहित्य में ऐसी तमाम नायाब कोशिशें बिखरी पड़ी हैं बस जरूरत है उनको ढ़ूंढकर उनकी खासियत को अलग से पहचान देने की..
आपका हमसफर
दीपक नरेश
2 टिप्पणियां:
वाह जी, बहुत खूब है.
दीपक जी शुक्रिया इतनी अच्छी रचना पढ़वाने के लिए।
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